पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३८६

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श्रीमद्भगवद्रीता 'दया ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च' (बृ० उ० 'प्रजापतिकी दो सन्ताने हैं देव और असुर' १।३१) इति श्रुतेः लोके अस्मिन् संसारे | इस श्रुतिसे भी यही बात सिद्ध होती है। क्योंकि इत्यर्थः । सर्वेषां वैविध्योपपत्तेः। इस संसारमें सभी प्राणियोंके दो प्रकार हो सकते हैं। कौ तौ भूतसौ इति, उच्यते प्रकृतौ एव प्राणियोंकी वे दो प्रकारकी सृष्टियाँ कौन-सी हैं ? इसपर कहते हैं कि इस प्रकरणमें कही हुई दैव आसुर एव च। दैवी और आसुरी। उक्तयोः एव पुनरनुवादे प्रयोजनम् आह- कही हुई दोनों सृष्टियोंका पुनः अनुवाद करनेका कारण बतलाते हैं- देवो भूतसर्गः 'अभयं सत्वसंशुद्धिः' दैवी सृष्टिका वर्णन तो 'अभयं सत्त्वसंशुद्धिः' इत्यादिना विस्तरशो विस्तरणकारैः प्रोक्तः श्लोकोद्वारा, विस्तारपूर्वक किया गया । परन्तु आसुरी सृष्टिका वर्णन, विस्तारसे नहीं हुआ। कथितो न तु आसुरो विस्तरशः अतः अतः हे पार्थ ! उसका त्याग करनेके लिये, उस तत्परिवर्जनार्थम् आसुरं पार्थ मे सम वचनाद् आसुरी सृष्टिको, तू मुझसे--मेरे वचनोंसे, विस्तार- उच्यमानं विस्तरशः शृणु अवधारय ॥६॥ पूर्वक सुन, यानी सुनकर निश्चय कर ॥६॥ आ अध्यायपरिसमाप्तेः आसुरी संपत् इस अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त, प्राणियों के प्राणिविशेषणत्वेन प्रदाते प्रत्यक्षीकरणेन च विशेषणोंद्वारा आसुरी सम्पत्ति दिखलायी जाती है, क्योंकि प्रत्यक्ष कर लेने से ही उसका त्याग करना शक्यते अस्याः परिवर्जनं कर्तुम् इति- बन सकता है- प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ ७ ॥ प्रवृत्तिं च प्रवर्तनं यस्मिन् पुरुषार्थसाधने आसुरी खभाववाले मनुष्य, प्रवृत्तिको अर्थात् जिस किसी पुरुषार्थके साधनरूप कर्तव्य कार्यमें कर्तव्ये प्रवृत्तिः तां निवृत्तिं च तद्विपरीतां | प्रवृत्त होना उचित है, उसमें प्रवृत्त होनेको, और यस्माद् अनर्थहेतोः निवर्तितव्यं सा निवृत्तिः निवृत्तिको, अर्थात् उससे विपरीत जिस किसी अनर्थकारक कर्मसे निवृत्त होना उचित है, उससे तां च जना आसुरा न विदुः न जानन्ति । निवृत्त होनेको भी, नहीं जानते । न केवलं प्रवृत्तिनिवृत्ती एव न विदुः न केवल प्रवृत्ति-निवृत्तिको नहीं जानते, इतना ही शौचं न अपि च आचारो न सत्यं तेषु विद्यते। नहीं, उनमें न शुद्धि होती है, न सदाचार होता है, और न सत्य ही होता है। यानी आसुरी प्रकृति- अशौचा अनाचारा मायाविनः अनृतवादिनो के मनुष्य, अशुद्ध, दुराचारी, कपटी और मिथ्या- हि आसुराः॥७॥ वादी ही होते हैं ॥७॥