पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३९१

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शांकरभाष्य अध्याय १६ कानं स्यादिविषयम्, नोधन अनिष्टविश्यम् या स्त्री आदिके विषय होनेत्राटा काम और किती प्रकारका अनिष्ट होने से होनेवाला क्रोध, एतान् अन्यान् व महतो दोयान् संश्रिताः । इन सब दोनोको, तथा अन्यान्य महान् दोषोंको भी, अवलम्बन करनेवाले होते हैं। किं च ते मान ईश्वरम् आत्मपरदेहेषु खदेहे इसके लिया वे अपने और दूसरोंके शरीरमें परदेहेषु च तद्बुद्धिकर्मसाक्षिभूतं मां प्रद्वियन्तो स्थित, उनको बुद्धि और कर्मके साक्षी, मुझ ईश्वरसे ट्रेप करनेवाले-मेरी आज्ञाको उल्लकन करके चलना मच्छासनातिवर्तित्वं प्रद्वेषः तं कुर्वन्तः ही मुझसे ठेव करना है, जो वैसा करनेवाले– अभ्यसूयकाः सन्मार्गस्थानां गुणेषु असह- और सन्मार्ग स्थित पुरुषों के गुणोंको सहन न मानाः॥१८॥ करके, उनकी निन्दा करनेवाले होते हैं ॥ १८ ॥ तानह द्विषतः ऋरान्संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजामशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १६॥ तान् अहं सर्वान् सन्मार्गप्रतिपक्षभूतान् । सन्मार्गके प्रतिपक्षी और मेरे तथा साधुपुरुषों के साधुद्वेषिणो द्विषतः च मां क्रूरान् संसारेषु एवं साथ द्वेष करनेवाले उन सत्र अशुभकर्मकारी क्रूर नरकसंसरणमार्गेषु नराधमान् अधर्मदोषवत्त्वात् नराधमोको, वे पापादि दोषोंसे युक्त होने के कारण, मैं बारंवार संसारमें-नरक-प्राप्तिके मार्गमें, जो प्रायः क्षिपामि प्रक्षिपामि अजस्रं संततम् अशुभान अशुभ- क्रूरकर्म करनेवाली व्याध-सिंह आदि आसुरी योनियाँ कर्मकारिण आसुरीषु एव क्रूरकर्मप्रायासु व्याघ्र- हैं उनमें ही, सदा गिराता हूँ। 'क्षिपामि' इस सिंहादियोनिषु क्षियामि इति अनेन संवन्धः।१९। क्रियापदका, योनिषु' के साथ सम्बन्ध है ।। १९ ॥ । आसुरी योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमा गतिम् ॥ २०॥ आसुरीं योनिम् आपन्नाः प्रतिपन्ना मूढा जन्मनि के मूढ----अविवेकीजन, जन्म-जन्ममें यानी जन्मनि अविवेकिनः प्रतिजन्म तमोबहुलासु प्रत्येक जन्ममें आसुरी योनिको पाते हुए अर्थात् एव योनिषु जायमाना अधो गच्छन्तो मूढा जिनमें, तमोगुणकी बहुलता है, ऐसी योनियोंको माम् ईश्वरम् अप्राप्य अनासाद्य एव हे कौन्तेय ततः । पाते हुए, नीचे गिरते-गिरते मुझं ईश्वरको न पाकर, तसाद् अपि यान्ति अधमा निकृष्टतमां उन पूर्वप्राप्त योनियोंकी अपेक्षा भी अधिक अधम- गतिम् । गतिको प्राप्त होते हैं। माम् अप्राप्य एव इति न मत्प्राप्तौ काचिद् 'मुझे प्रास न होकर' ऐसा कहनेका तात्पर्य अपि आशङ्का अस्ति अतो मच्छिष्टसाधुमार्गम् यह है कि मेरे द्वारा कहे हुए श्रेष्ठ मार्गको भी न पाकर, क्योंकि मेरी प्राप्तिकी तो उनके लिये. कोई अप्राप्य इत्यर्थः ।। २०॥ आशङ्का ही नहीं है ॥२०॥