पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४००

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३८६ श्रीमद्भगवद्गीता सबै एव कार्यकरणैः कादिभिः साध्यं शारीरं करणोंसे जो कर्ताद्वारा किये जायें वे शरीरसम्बन्धी तप उच्यते । 'पञ्चैते तस्य हेतवः' इति हि तप कहलाते हैं । आगे यह कहेंगे भी कि 'उन वक्ष्यति ॥१४॥ (सब काँ) के ये पाँच कारण हैं' इत्यादि ॥१४॥ अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥१५॥ अनुद्वेगकरं प्राणिनाम् अदुःखकरं वाक्यं जो वचन किसी प्राणीके अन्तःकरणमें उद्वेग उत्पन्न करनेवाले नहीं हैं, तथा जो सत्य, प्रिय और सत्यं प्रियहितं च यत् प्रियहिते दृष्टादृष्टार्थे । हितकारक हैं; अर्थात् इस लोक और परलोकमें अनुद्वेगकरत्वादिभिः धर्मैः वाक्यं विशेष्यते । सर्वत्र हित करनेवाले हैं। यहाँ 'उद्वेग न करनेवाले' इत्यादि लक्षणोंसे वाक्यको विशेषित किया गया है विशेषणधर्मसमुच्चयार्थः चशब्दः । परप्रत्याय- और 'च' शब्द सब लक्षणोंका समुच्चय बतलानेके लिये है ( अतः समझना चाहिये कि ) दूसरेको नार्थ प्रयुक्तस्य वाक्यस्य सत्यप्रियहितानु- किसी बातका बोध कराने के लिये कहे हुए वाक्यमें यदि सत्यता,प्रियता, हितकारिता और अनुद्विग्नता- द्वेगकरत्वानाम् अन्यतमेन द्वाभ्यां त्रिभिः वा इन सबका अथवा इनमेंसे किसी एक, दो या हीनता स्याद् यदि न तद् वाअयं तपः। तीनका अभाव हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है। तथा सत्यवाक्यस्य इतरेषाम् अन्यतमेन जैसे सत्य वाक्य यदि अन्य एक, दो या तीन द्वाभ्यां त्रिमिः वा हीनतायां न वाङ्मय- | गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है, वैसे तपस्त्वम् । तथा प्रियवाक्यस्य अपि इतरेषाम् ही प्रिय वचन भी यदि अन्य एक, दो या तीन अन्यतमेन द्वाभ्यां त्रिभिः वा होनस्य न गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीसम्बन्धी तप नहीं है, वाङ्मयतपस्त्वम् । तथा हितवाक्यस्य अपि तथा हितकारक वचन भी यदि अन्य एक, दो या इतरेषाम् अन्यतमेन द्वाभ्यां त्रिभिः वा वियुक्तस्य न वाङ्मयतपस्त्वम् ।। तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणीका तप नहीं है। किं पुनः तत् तपः, पूल-तो फिर वह वाणीका तप कौन-सा है ? यत् सत्यं वाक्यम् अनुद्वेगकरं प्रियहितं च उ०-जो वचन सत्य हो और उद्वेग करनेवाला न यत् तत् परमं तपो वाङ्मयम् । यथा शान्तो हो तथा प्रिय और हितकर भी हो, वह वाणीसम्बन्धी भव वत्स स्वाध्यायं योगं च अनुतिष्ठ तथा और योगमें स्थित हो, इससे तेरा कल्याण होगा' परम तप है । जैसे, 'हे वत्स ! तू शान्त हो, स्वाध्याय ते श्रेयो भविष्यति । स्वाध्यायाभ्यसनं च एव इत्यादि वचन हैं। तथा यथाविधि स्वाध्यायका अभ्यास यथाविधि वाङ्मयं तप उच्यते ॥१५॥ करना भी वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।॥ १५॥