पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४०२

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श्रीमद्भगवद्गीता सत्कारमानपूजार्थ सत्कारः साधुकारः साधुः जो तप सत्कार, मान और पूजाके लिये किया जाता है-~-यह बड़ा श्रेष्ठ पुरुष है, तपस्वी है, अयं तपस्वी ब्राह्मण इति एवम् अर्थ मानो ब्राह्मण है, इस प्रकार जो बड़ाई की जाती है माननं प्रत्युत्थानाभिवादनादिः तदर्थं पूजा उसका नाम सत्कार है । ( आते देखकर) खड़े हो जाना तथा प्रणाम आदि करना-ऐसे सम्मानका पादप्रक्षालनार्चनाशयितृत्वादिः तदर्थं च तपः नाम मान है । पैर धोना, अर्चन करना, भोजन सत्कारमानपूजार्थं दम्भेन च एव यत् क्रियते कराना इत्यादिका नाम पूजा है । इन सबके लिये जो तप किया जाता है और जो दम्भसे किया तपः तद् इह प्रोक्तं कथितं राजसं चलं कादा- | जाता है, वह तप यहाँ राजसी कहा गया है । चित्कफलत्वेन अध्रुवम् ॥१८॥ तथा अनिश्चित फलबाला होनेसे नाशवान् और अनित्य भी कहा गया है।॥१८॥ away- मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १६ ॥ मूढंग्राहेण अविवेकनिश्चयेन आत्मनः पीडया जो तप अपने शरीरको पीड़ा पहुँचाकर या क्रियते यत् तपः परस्य उत्सादनार्थ विनाशार्थ वा | दूसरेका बुरा करनेके लिये मूढ़तापूर्वक आग्रहसे | अर्थात् अज्ञानपूर्वक निश्चयसे किया जाता है, वह तत् तामसं तप उदाहृतम् ।।१९।। तामसी तप कहा गया है ॥ १९ ॥ इदानी दानभेद उच्यते- अब दानके भेद कहे जाते हैं- दातव्यमिति यदानं दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तदानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥ २० ॥ दातव्यम् इति एवं मनः कृत्वा यद् दानं दीयते जो दान देना ही उचित है' मनमें ऐसा अनुपकारिणे प्रत्युपकारासमर्थाय समर्थाय अपि विचार करके अनुपकारीको, जो कि प्रत्युपकार करनेमें समर्थ न हो, यदि समर्थ हो तो भी जिससे निरपेक्षं दीयते देशे पुण्ये कुरुक्षेत्रादौ काले | प्रत्युपकार चाहा न गया हो, ऐसे अधिकारीको संक्रान्त्यादौ पात्रे च षडङ्गविद्वेदपारगे इत्यादौ दिया जाता है, तथा जो कुरुक्षेत्र आदि पुण्यभूमिमें, तद् दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥२०॥ संक्रान्ति आदि पुण्यकालमें और छहों अंगोंके सहित वेदको जाननेवाले ब्राह्मण आदि श्रेष्ठ पात्रको दिया जाता है वह दान सात्त्विक कहा गया है ॥२०॥ यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तदानं राजसं स्मृतम् ॥ २१॥