पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४०७

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SHORTHANASISSARRHEATREASURRORRECAMERAMANISHAD sapnALLEYARLETERTREERENCE TwtarnamaARENERAiskewerwwwsanei .......................-....-- शांकरभाष्य अध्याय १८

काम्यानाम् अश्वमेधादीनां कर्मणां न्यासं परि- कितने ही बुद्धिमान्-पण्डित लोग, अश्वमेवादि त्यागं संन्यासं संन्यासशब्दार्थम् अनुष्ठेयत्वेन : सकाम क्रमकि त्यागको संन्यास समझते हैं, अर्थात् प्राप्तस्य अननुष्ठानं कवयः पण्डिताः केचिद् कर्तव्यरूपसे प्राप्त. ( शास्त्रविहित ) सकाम कोके विदुः विजानन्ति । न करनेको संन्यास शब्दका अर्थ समझते हैं। नित्यनैमित्तिकानाम् अनुष्टीयमानानां सर्व- कुछ विचक्षण-पण्डितजन अनुष्ठान किये जाने- कर्मणाम् आत्मसंबन्धितया प्राप्तस्य फलस्व वाले नित्य-नैमित्तिक संपूर्ण कोके, अपनेसे सम्बन्ध परित्यागः सर्वकर्मफलत्यागः तं प्राहुः रखनेवाले फलका, परित्याग करनारूप जो सर्व- कथयन्ति त्यानं त्यागशब्दार्थ विचक्षणाः कर्म-फल-त्याग हैं, उसे ही त्याग कहते हैं, अर्थात् पण्डिताः। 'त्याग' शब्दका वे ऐसा अभिप्राय बतलाते हैं । यदि काम्यकर्मपरित्यागः फलपरित्यागो कहनेका अभिप्राय, चाहे कान्य कर्मों का ( स्वरूपसे त्याग करना हो और चाहे समस्त वा अर्थों वक्तव्यः सर्वथा अपि त्यागमानं कर्मोका फल छोड़ना ही हो, सभी प्रकारसे संन्यास संन्यासत्यागशब्दयोः एकः अथों न घटपट- और त्याग इन दोनों शब्दोंका अर्थ तो, एकमात्र त्याग ही है । ये दोनों शब्द 'बड़ा' और 'वस्त्र' आदि शब्दों- शब्दौ इव जात्यन्तरभूतार्थों। की भाँति भिन्न जातीय अर्थक बोधक नहीं हैं। ननु नित्यनैमित्तिकानां कर्मणां फलम् एव पू०-जब ऐसा कहा जाता है, कि नित्य और नैमित्तिक कर्मोका तो फल ही नहीं होता, फिर यहाँ नास्ति इति आहुः कथम् उच्यते तेषां फल- बन्ध्याके पुत्रत्यागकी भाँति, उनके फलका त्याग त्याग इति । यथा वन्ध्यायाः पुत्रत्यागः । करने के लिये कैसे कहा जाता है ? न एष दोषः, नित्यानाम् अपि कर्मणां उ०-नित्यकर्मोंका भी फल होता है-यह बात भगवता फलवत्वस्य इष्टत्वात् । वक्ष्यति हि भगवान्को इष्ट है, इसलिये यह दोष नहीं है। भगवान् 'अनिष्टमिष्टम्' इति न तु संन्यासिनाम्' क्योंकि भगवान् स्वयं कहेंगे कि 'मरनेके बाद कर्मों- का अच्छा-बुरा और मिला हुआ फल असंन्या. इति च ! संन्यासिनाम् एव हि केवलं कर्म- सियों को होता है', 'संन्यासियोंको नहीं' फलासंबन्धं दर्शयन् असंन्यासिनो नित्यकर्म- इस प्रकार वहाँ केवल संन्यासियोंके लिये कर्मफलका फलप्राप्ति 'भवत्यत्यागिनां प्रेत्य' इति अभाव दिखाकर. असंन्यासियोंके लिये कर्मफलको दर्शयति ॥२॥ प्राप्ति अवश्यम्भावी दिखलायेंगे ॥२॥ त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः । यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥३॥ ५०