पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४०८

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MR" ..... श्रीमद्भगवद्गीता त्याज्यं त्यक्तव्यं दोषवद् दोषः अस्य अस्ति कितने ही सोख्यादि मतावलम्बी पण्डितजन कहते इति दोषवत् । किं तत् कर्म बन्धहेतुत्वात् हैं कि जिसमें दोष हो वह दोषवत् है। वह क्या है ? कि सर्वम् एव । अथवा दोषो यथा रागादिः बन्धनके हेतु होनेके कारण सभी कर्म दोषयुक्त हैं, त्यज्यते तथा त्याज्यम् इति एके प्राहुः मनीषिणः ! इसलिये कर्म करनेवाले कर्माधिकारी मनुष्यों के लिये पण्डिताः सांख्यादिदृष्टिम् आश्रिता अधि- भी वे त्याज्य हैं, अथवा जैसे राग-द्वेष आदि दोष कृतानां कर्मिणाम् अपि इति । त्यागे जाते हैं, वैसे ही समस्त कर्म भी त्याज्य हैं। तत्र एव यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यम् इति इसी विषयमें दूसरे विद्वान् कहते हैं कि यज्ञ, दान च अपरे। और तपरूप कर्म त्याग करनेयोग्य नहीं हैं। कर्मिण एव अधिकृतान् अपेक्ष्य एते ये सब विकल्प, कर्म करनेवाले कर्माधिकारियोंको विकल्पा न तु ज्ञाननिष्ठान व्युत्थायिनः लक्ष्य करके ही किये गये हैं। समस्त भोगोंसे विरक्त, संन्यासिनः अपेक्ष्य । ज्ञाननिष्ठ, संन्यासियोंको लक्ष्य करके नहीं । ज्ञानयोगेन सांख्यानां निष्ठा मया पुरा ( अभिप्राय यह कि) 'सांख्ययोगियोंकी निष्ठा ज्ञान-योगके द्वारा मैं पहले कह चुका हूँ' प्रोक्ता इति कर्माधिकाराद् अपोद्धृता ये न इस प्रकार जो (संन्यासी) कर्माधिकारसे अलग कर दिये गये हैं उनके विषयमें यहाँ कोई विचार नहीं तान् प्रति चिन्ता। करना है। ननु 'कर्मयोगेन योगिनाम्' इति अधिकृताः पू.--'कर्मयोगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे कही गयी है। 'इस कथनसे जिनकी निष्ठाका विभाग पहले पूर्व विभक्तनिष्ठा अपि इह सर्वशास्त्रोपसंहार- किया जा चुका है, उन कर्माधिकारियों के सम्बन्धमें, प्रकरणे यथा विचार्यन्ते तथा सांख्या अपि जिस प्रकार यहाँ गीताशास्त्रके उपसंहारप्रकरणमें फिर विचार किया जाता है, वैसे ही, सांख्यनिष्ठा- ज्ञाननिष्ठा विचार्यन्ताम् इति । वाले संन्यासियोंके विषयमें भी तो किया जाना उचित ही है। न, तेषां मोहदुःखनिमित्तत्यागानुपपत्तेः। उ०-नहीं, क्योंकि उनका त्याग मोह या दुःखके निमित्तसे होनेवाला नहीं हो सकता। न कायक्लेशनिमित्तानि दुःखानि सांख्या (भगवान्ने क्षेत्राध्यायमें ) इच्छा और द्वेष आदि- आत्मनि पश्यन्ति इच्छादीनां क्षेत्रधर्मत्वेन | को शरीरके ही धर्म बतलाया है इसलिये सांख्यनिष्ठ संन्यासी शारीरिक पीड़ाके निमित्तसे होनेवाले दुःखों- एव दर्शितत्वात् । अतः ते न कायक्लेशदुःख- | को आत्मामें नहीं देखते । अतः वे शारीरिक क्लेशजन्य भयात् कर्म परित्यजन्ति । दुःखके भयसे कर्म नहीं छोड़ते । न अपि ते कर्माणि आत्मनि पश्यन्ति तथा वे आत्मामें कोंका अस्तित्व भी नहीं | देखते, जिससे कि उनके द्वारा मोहसे नियत कमों- येन नियतं कर्म मोहात् परित्यजेयुः। का परित्याग किया जा सकता हो ।