पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४१

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शांकरभाष्यं अध्याय २ एवम् आत्मानात्मनोः सदसतो. उभयोः इस प्रकार सत्-आत्मा और असत्-अनात्मा-- अपि दृष्ट उपलब्धः अन्तो निर्णयः सत् सत् एच इन दोनों का ही यह निर्णय तत्त्वदर्शियोद्वारा देखा असत् असत् एक इति तु अनयोः यथोक्तयोः गया है अर्थात् प्रत्यक्ष किया जा चुका है कि सत् तत्त्वदर्शिभिः । सत् ही है और असत् असत् ही है । तत् इति सर्वनाम सर्व च ब्रह्म तस्य नाम तत् 'तत्' यह सर्वनाम है और सर्व ब्रह्म ही है, अतः उसका नाम 'तत्' है, उसके भावको अर्थात् इति तद्भावः तत्त्वं ब्रह्मणो याथात्म्यं तत् द्रष्टुं ब्रह्मके यथार्थ स्वरूपको तत्त्व कहते हैं, उस तत्त्वको देखना जिनका स्वभाव है वे तत्त्वदर्शी हैं, उनके शीलं येषां ते तत्वदर्शिनः तैः तत्त्वदर्शिभिः । द्वारा उपर्युक्त निर्णय देखा गया है। त्वम् अपि तत्वदर्शिनां दृष्टिम् आश्रित्य शोकं तू भी तत्त्वदर्शी पुरुषोंकी बुद्धिका आश्रय लेकर मोहं च हित्वा शीतोष्णादीनि नियतानियत- शोक और मोहको छोड़कर तथा नियत और अनियत- रूप शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको, इस प्रकार मनमें समझकर रूपाणि द्वन्द्वानि विकारः अयम् असन् एव कि ये सत्र विकार हैं, ये वास्तवमें न होते हुए ही मरीचिजलवत् मिथ्या अवभासते इति मनसि मृगतृष्णाके जलकी भाँति मिथ्या प्रतीत हो रहे हैं, निश्चित्य तितिक्षस्व इति अभिप्रायः ॥ १६॥ (इनको ) सहन कर । यह अभिप्राय है ॥ १६ ॥ किं पुनः तत् यत् सत् एव सर्वदा एव तो, जो निस्सन्देह सत् है और सदैव रहता है अस्ति इति उच्यते- वह क्या है ? इसपर कहा जाता है- अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमन्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥१७॥ अविनाशि न विनष्टुं शीलम् अस्य इति । तु नष्ट न होना जिसका स्वभाव है, वह अविनाशी है। 'तु' शब्द असतसे सत्की विशेषता दिखानेके शब्दः असतो विशेषणार्थः। लिये है। तत् विद्धि विजानीहि । किं येन सर्वम् इदं जगत् उसको तू ( अविनाशी) जान--समझ, किसको ? ततं व्याप्तं सदाख्येन ब्रह्मणा साकाशम् जिस सत् नामके ब्रह्मसे यह आकाशसहित सम्पूर्ण आकाशेन इव घटादयः। विश्व आकाशसे घटादिके सदृश व्याप्त है। विनाशम् अदर्शनम् अभावम् अव्ययस्य न इस अव्ययका अर्थात् जिसका व्यय नहीं होता- व्येति, उपचयापचयौ न याति इति अव्ययं जो घटता-बढ़ता नहीं उसे अव्यय कहते हैं, उसका तस्य अव्ययस्थ विनाश-अभाव(करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है)। न एतत् सदाख्यं श्रम स्वेन रूपेण व्यति क्योंकि यह सत् नामक ब्रह्म अवथवरहित होने के कारण देहादिकी तरह अपने स्वरूपसे नष्ट व्यभिचरति निरवयवत्वात् देहादिवत् । नहीं होता अर्थात् इसका व्यय नहीं होता । ४