पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४१४

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REFRASTRIS श्रीमद्भगवद्गीता % नित्यानां कर्मणां फलवत्त्वे भगवद्वचनं नित्यकर्मोका फल होता है, इस विषयमें प्रमाणम् अवोचाम । अथवा यद्यपि फलंन | पहले भगवान्के वचनोंका प्रमाण दे चुके हैं। श्रूयते नित्यस्य कर्मणः तथापि नित्यं अथवा यों समझो, कि यद्यपि नित्यकर्मोका फल नहीं सुना जाता है, तो भी अज्ञ मनुष्य ऐसी कर्म कृतम् आत्मसंस्कार प्रत्यवायपरिहारं वा कल्पना कर ही लेता है कि किया हुआ नित्यकर्म फलं करोति आत्मन इति कल्पयति एव अज्ञा, अन्तःकरणको शुद्धि या प्रत्यवायकी निवृत्तिरूप तत्र ताम् अपि कल्पनां निवारयति फलं फल देता है, सुतरां 'फलं त्यक्त्वा' इस कथनसे त्यक्त्वा इति अनेन, अतः साधु उक्तं सङ्गं | ऐसी कल्पनाका भी निषेध करते हैं । अतः 'सङ्ग त्यक्त्वा फलं च इति । । त्यक्त्वा फलं च' यह कहना बहुत ही उचित है। स त्यागो नित्यकर्मसु सङ्गफलपरित्यागः वह त्याग अर्थात् नित्यकोंमें आसक्ति और फलका त्याग सात्त्विक सत्त्वगुणसे किया हुआ सात्त्विकः सत्त्वनिवृत्तो मतः अभिमतः । त्याग माना गया हैं। ननु कर्मपरित्यागः त्रिविधः संन्यास इति यू०-तीन प्रकारका कर्मपरित्याग संन्यास है, यह प्रकरण है। उसमें तामस और राजस तो च प्रकृतः तत्र तामसो राजसः च उक्तः ! त्याग बतलाये गये परन्तु तीसरे ( सात्त्विक ) त्यागकी जगह ( कर्मोका त्याग न कहकर ) आसक्ति और त्यागः कथम् इह सङ्गफलत्यागः, तृतीयत्वेन फलका त्याग कैसे कहते हैं ? जैसे कोई कहे कि उच्यते यथा त्रयो ब्राह्मणा आगताः तत्र तीन ब्राह्मण आये हैं, उनमें दो तो वेदके छहों अङ्गों को जाननेवाले हैं और तीसरा क्षत्रिय है, षडङ्गविदौ द्वौ क्षत्रियः तृतीय इति तद्वत् । उसीके समान यह कथन भी प्रकरणविरुद्ध है। न एष दोषः, त्यागसामान्येन स्तुत्यर्थ- उ०-यह दोष नहीं है, क्योंकि त्यागमात्रकी । अस्ति हि कर्मसंन्यासस्य फलाभिसंधि- समानतासे कर्मफलत्यागकी स्तुतिके लिये ऐसा कहा है । कर्मसंन्यासकी और फलासक्तिके त्यागकी, त्यागस्य च त्यागत्वसामान्यं तत्र राजस- त्यागमात्रमें तो समानता है ही। उनमें (स्वरूपसे) तामसत्वेन कर्मत्यागनिन्दया कर्मफला- कर्मोके त्यागको राजस और तामस त्याग बतलाकर उसकी निन्दा करके, 'स त्यागः सात्विको मतः' भिसंधित्यागः साचिकत्वेन स्तूयते 'स त्यागः इस कथनसे कर्मफल और आसक्तिके त्यागको सात्त्विक सात्त्विको मतः' इति ॥९॥ त्याग बतलाकर उसकी स्तुति की जाती है ॥९॥ स्वात् यातु अधिकृतः सङ्गं त्यक्त्वा फलाभिसंधि जो अधिकारी, आसक्ति और फल-वासना छोड़कर च नित्यं कर्म करोति तस्य फलरागादिना नित्यकर्म करता है, उसका फलासक्ति आदि दोषोंसे अकलुपीक्रियमाणम् अन्तःकरणं नित्यैः च दूषित न किया हुआ अन्तःकरण, नित्यकर्मोके अनु- कर्मभिः संस्क्रियमाणं विशुध्यति । ष्ठानद्वारा संस्कृत होकर विशुद्ध हो जाता है।