पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४१५

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H . शांकरभाष्य अध्याय १८ विशुद्ध प्रसन्नम् आत्मालोचनक्षम भवति । विशुद्ध और मनन्न अन्तःकरा हो आध्यात्मिक विश्या अालोचनामें मुर्थ होता है । अतः इस तस्य एव नित्यकर्मानुष्ठानेन विशुद्धान्त करथास्य का नियकाले अनुष्ठानले जिलका अन्तः- आत्मज्ञानाभिमुखस्य ऋण यथा नन्निधा स्वात भरमा विशुद्ध हो गया है एवं जो आत्मज्ञानके अनिमुल है. उसकी उस आत्मज्ञानने जिस प्रकार तद् वक्तव्यम् इति आई- कम थिति होती है, वह कहती हैं, इसलिये । न हेटयकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते । त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ।।१०।। न द्वेष्टि अकुशलम् अशोभन काम्यं कर्म अनुशल-कान्यकमोंने (बह द्वेष नहीं करता शरीरारम्भद्वारेण संसारकारणं किम् अनेन अर्थात् काम्यकर्म पुनर्जन्म देनेवाले होने के कारण संसारके झारण हैं, इनसे मुझे क्या प्रयोजन है, इति एवम् । इस प्रकार उनसे द्वेष नहीं करता। कुशले शोभने नित्ये कर्मणि सत्वशुद्धि- कुशल-शुभ-नित्यक में आसान नहीं होता। ज्ञानोत्पत्तितनिष्ठाहेतुत्वेन मोक्षकारणम् इदम् : अर्थात् अन्तःकरणी शुद्धि, ज्ञानकी उत्पत्ति और उलमें ब्धितिके हेतु होनेसे नित्यकर्म मोक्षके कारण हैं, इति एवं न अनुषजते तत्र अपि प्रयोजनम् इस प्रकार उनमें आसक्त नहीं होता। यानी उनमें भी अपश्यन् अनुपङ्गं प्रीति न करोति इति एतत् । अपना कोई प्रयोजन न देखकर प्रीति नहीं करता। का पुनः असो, त्यागी पूर्वोक्तेन सङ्गझल- वह कौन है ? त्यागी, जो कि पूर्वोक्त आसक्ति । परित्यागेन तद्वान् त्यागी यः कर्मणि सङ्गं और फलके त्यागसे सम्पन्न है, अर्थात् कमोंमें आसक्ति त्यक्त्वा तत्फलं च नित्यकर्मानुष्ठायी स और उनका फल छोड़कर नित्य कर्मों का अनुष्ठान त्यागी। करनेवाला है, ऐसा त्यागी। कदा पुनः असो, अकुशलं कर्म न द्वेष्टि ऐला पुरुष किस अवस्थामें, काम्यकर्मोसे द्वेध नहीं करता और नित्यक्रमों में आसक्त नहीं होता ? कुशले च न अनुषजते इति उच्यते-- सो कहते हैं- सत्त्वसमाविष्टो यदा सत्त्वेन आत्मानात्म- जब कि वह सात्विक भावसे युक्त होता है । विवेकविज्ञानहेतुना समाविष्टः संव्यात संयुक्त अर्थात् आत्म-अनात्म-विषयक विवेक-ज्ञानके हेतु- इति एतत् । खरूप सत्त्वगुणसे भरपुर-भलीप्रकार व्याप्त होता है । अत एव च मेधावी मेधया आत्मज्ञान- इसीलिये वह मेधावी है, अर्थात् आत्मज्ञान-रूप लक्षणया प्रज्ञया संयुक्तः तद्वान् मेधावी बुद्धिसे युक्त है। मेधात्री होनेके कारण ही छिन्नसंशय मेधावित्वाद् एव छिन्नसंशयः छिन्नः अविद्या- है-अविद्याजनित संशयले रहित है। अर्थात् कृतः संशयो यस्य आत्मस्वरूपावस्थानम् एव आत्मस्वरूपमें स्थित हो जाना ही परम कल्याणका परं निःश्रेयससाधनं न अन्यत् किंचिद् इति साधन है, और कुछ नहीं, इस निश्चयके कारण एवं निश्चयेन छिन्नसंशयः। संशयरहित हो चुका है।