पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीमद्भगवद्गीता या अधिकृतः पुरुषः पूर्वोक्तन प्रकारेण जो अधिकारी पुरुष, पूर्वोक्त प्रकारसे कर्मयोगके कर्मयोगानुष्ठानेन क्रमेण संस्कृतात्मा सन् अनुष्ठानद्वारा क्रमसे विशुद्धान्तःकरण होकर, जन्मादिविक्रियारहितत्वेन निष्क्रियम् जन्मादि विकारोंसे रहित और क्रियारहित आत्माको आत्मानम् आत्मत्वेन संबुद्धः, सः 'सर्वकर्माणि भलीप्रकार अपना स्वरूप समझ गया है, वह 'समस्त कर्मों को मनले त्यागकर' 'न कुछ करता मनसा संन्यस्य' 'नैव कुर्वन्न कारयन् आसीनः' | और न कराता हुआ रहनेवाला' ( आत्मज्ञानी) नैष्कर्थलक्षणां ज्ञाननिष्ठाम् अश्नुते । निष्कर्मतारूप ज्ञाननिष्ठाको भोगता है। इति एतत् पूर्वोक्तस्य कर्मयोगस्य प्रयोजनम् इस प्रकार इस श्लोकद्वारा यह पूर्वोक्त कर्मयोगका अनेन श्लोकेन उक्तम् ॥१०॥ फल बतलाया गया है ॥१०॥ यः पुनः अधिकृतः सन् देहात्माभिमानि- परन्तु जो पुरुष कर्माधिकारी है और शरीरमें आत्माभिमान रखनेवाला होनेके कारण देहधारी त्वेन देहभृद् अज्ञः अबाधितात्मकर्तृत्वविज्ञान- अज्ञानी है, आत्मविषयक कर्तृत्व-ज्ञान नष्ट न होनेके तया अहं कर्ता इति निश्चितबुद्धिः तस्य | कारण जो 'मैं करता हूँ' ऐसी निश्चित बुद्धिवाला अशेषकर्मपरित्यागस्य अशक्यत्वात् कर्मफल- है, उससे कर्मका अशेष त्याग होना असंभव होनेके कारण, उसका कर्मफलत्यागके सहित विहित कों- त्यागेन चोदितकर्मानुष्ठाने एव अधिकारो न के अनुष्ठानमें ही अधिकार है, उनके त्यागमें नहीं। तत्यागे इति एतम् अर्थ दर्शयितुम् आह- यह अभिप्राय दिखलानेके लिये कहते हैं- न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः । यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥११॥ न हि यसाद् देहभृता देहं बिभर्ति इति देहधारी-देहको धारण करे सो देहधारी, इस | व्युत्पत्तिके अनुसार शरीरमें आत्माभिमान रखनेवाला देहभृद् देहात्माभिमानवान् उच्यते न | देहभृत् कहा जाता है, विवेकी नहीं। क्योंकि हि विवेकी स हि 'वेदाविनाशिनम्' इत्यादिना 'वेदाविनाशिनम्' इत्यादि श्लोकोंसे वह (विवेकी) कर्तापनके अधिकारसे अलग कर दिया गया है। अतः कर्तृत्वाधिकाराद् निवर्तितः अतः तेन देहभृता (यह अभिप्राय समझना चाहिये कि जिस कारण उस अज्ञेन न शक्यं त्यक्तुं संन्यसितुं कर्माणि देहधारी-अज्ञानीसे समस्त कर्मोका पूर्णतया त्याग किया जाना सम्भव नहीं है, इसलिये जो तत्त्व- अशेषतो निःशेषेण । तसाद् यः तु अज्ञः ज्ञानरहित अधिकारी, नित्यकर्मोंका अनुष्ठान करता अधिकृतो नित्यानि कर्माणि कुर्वन् कर्मफलत्यागी हुआ उन कोंके फलका त्यागी है, अर्थात् कर्म- फलकी वासनामात्रको छोड़नेवाला है, वह कर्म कर्मफलाभिसंधिमात्रसंन्यासी स त्यागी इति करनेवाला होनेपर भी स्तुतिके अभिप्रायले 'त्यागी' अभिधीयते कर्मी अपि सन् इति स्तुत्यभिप्रायेण । कहा जाता ।