पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४१७

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MAHAurNURAHARASHTRA AAAAAMANAMAMMISRO शांकरभाष्य अध्याय १८ तसात् परमार्थदर्शिना एक अदहमृता सुतरां यह सिद्ध हुआ कि देहात्माभिमानसे देहात्मभावरहितेन अशेषकर्मसंन्यासः शक्यते रहित परमार्थवानी के द्वारा ही निःशेषनावसे कर्म- कर्तुम् ॥ ११ ॥ संन्यास किया जा सकता है ।।११।। मिश्र-- इष्ट और किं पुनः तत् प्रयोजनं यत् सर्वकर्मपरि- सब कोका त्याग करनेसे जो फल होता है, त्यागात् स्याद् इति उच्यते-- वह क्या है ? इसपर कहते हैं- अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् । भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां कचित् ॥ १२ ॥ अनिष्टं नरकतिर्यगादिलक्षणम् इष्ट देवादि- अनिष्ट-~-नरक और पशु-पक्षी आदि योनिरूप, लक्षणं मिश्रम् इष्टानिष्टसंयुक्तं मनुष्यलक्षणं च इष्ट-- देवयोनिरूप तथा एवं त्रिविधं त्रिप्रकार कर्मणो धर्माधर्मलक्षणस्य अनिष्टमिश्रित मनुष्ययोनिरूप, इस प्रकार यह युष्य-पादरूप कर्मोका फल तीन प्रकारका होता है। बाह्यानेककारकव्यापारनिष्पन्न जो पदार्थ बाइकर्ता, कर्म, क्रिया आदि अनेक भारकों द्वारा निष्पन्न हुआ हो और बाजीगरकी अविद्याकृतम् इन्द्रजालमायोपमं महामोहकरं मायाके समान, अविधाजनित, महामोहकारक हो, प्रत्यगात्मोपसर्षि इव फल्गुतया लयम् अदर्शन एवं जीवात्माके आश्रित-सा प्रतीत होता हो और साररहित होनेके कारण तत्काल ही लय--नष्ट हो गच्छति इति फलम् इति फलनिर्वचनम् । जाता हो, उसका नाम फल है। यह फल शब्दकी व्याख्या है। तद् एतद् एवंलक्षणं फलं भवति अत्यागिनाम् ऐसा यह तीन प्रकारका फल, अत्यागियों को अज्ञानां कर्मिणाम् अपरमार्थसंन्यासिनां प्रेत्य अर्थात् परमार्थ संन्यास न करनेवाले कर्मनिष्ट शरीरयाताद् ऊर्ध्वम् । न तु परमार्थसंन्यासिनां अज्ञानियोंको ही, मरनेके पीछे मिलता है। परमहंसपरिव्राजकानां केवलज्ञाननिष्ठानां केवल ज्ञाननिष्ठामें स्थित परमहंस परित्राजक क्वचित् । वास्तविक संन्यासियोंको, कभी नहीं मिलता। न हि केवलसम्यग्दर्शननिष्ठा अविद्यादि- क्योंकि ( वे ) केवल सम्यगज्ञाननिष्ठ पुरुष, संसारबीजं न उन्मूलयन्ति कदाचिद् संसारके बीजरूप अविद्यादि दोषोंका मुलोच्छेद इत्यर्थः ॥ १२॥ नहीं करते. ऐसा कभी नहीं हो सकता ॥ १२ ॥ अतः परमार्थदर्शिन एव अशेषकर्मसंन्या- इसलिये क्रिया. कारक और फल आदि आत्मामें अविद्यासे आरोपित होनेके कारण परमार्थदर्शी सित्वं संभवति अविद्याध्यारोपितत्वाद् आत्मनि ( आत्मज्ञानी ) ही सम्पूर्ण कर्मोका अशेपतः त्यागी क्रियाकारकफलानां न तु अज्ञस्य अधिष्ठा- हो सकता है। कर्म करनेवाले अधिष्टान ( शरीर )