पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४२२

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श्रीमद्भगवद्गीता 4 ननु अधिष्ठानादिभिः संभूय करोति एव पू०-'कर्तारमात्मानं केवलं तु' इस कथनमें केवल-शब्दका प्रयोग होनेसे यह पाया जाता है आत्मा 'कर्ता रमात्मानं केवलं तु' इति केवल- कि आत्मा ( अकेला कर्म नहीं करता पर) शब्दप्रयोगात् । अधिष्ठान आदि अन्य हेतुओंके साथ सम्मिलित | होकर निःसन्देह कर्म करता है। न एष दोषः आत्मनः अविक्रियस्वभावत्वे उ6--यह दोष नहीं है, क्योंकि अविक्रिय-स्वभाव होनेके कारण, आत्माका अधिष्ठानादिसे संयुक्त अधिष्ठानादिभिः संहतत्वानुपपत्तेः । होना, नहीं बन सकता। विक्रियावतो हि अन्यैः संहननं संभवति विकारवान् वस्तुका ही अन्य पदार्थोंके साथ संघात हो सकता है और विकारी पदार्थ ही संहत संहत्य वा कर्तृत्वं स्यात् । होकर कर्ता बन सकता है। न तु अविक्रियस्य आत्मनः केनचित् | निर्विकार आत्माका, न तो किसीके साथ संयोग संहननम् अस्ति इति न संभूय कर्तृत्वम् उपपद्यते । | हो सकता है और न संयुक्त होकर उसका कर्तृत्व ही बन सकता है । इसलिये (यह समझना चाहिये अतः केवलत्वम् आत्मनः स्वाभाविकम् इति | कि) आत्माका केवलत्व स्वाभाविक है, अतः यहाँ केवलशब्दः अनुवादमात्रम् । 'केवल' शब्दका अनुवादमात्र किया गया है। अविक्रियत्वं च आत्मनः श्रुतिस्मृतिन्याय- आत्माका अविक्रियत्य श्रुति-स्मृति और न्यायसे प्रसिद्धम् । 'अविकार्योऽयमुच्यते' ‘गुणैरेव कर्माणि प्रसिद्ध है । गीतामें भी 'यह विकाररहित कह- क्रियन्ते. शरीरस्थोऽपि न करोति' इत्यादि आत्मा शरीरमें स्थित हुआ भी नहीं करता' लाता है' 'सब कर्म गुणोंसे ही किये जाते हैं' असकृद् उपपादितं गीतासु एव तावत् । | इत्यादि वाक्योंद्वारा अनेक बार प्रतिपादित है और श्रुतिषु च 'ध्यायवि लेलायतीव' ( छा० उ०७। 'मानो ध्यान करता है, मानो चेष्टा करता है' इस ६।१) इति एवम् आधासु। प्रकारकी श्रुतियोंमें भी प्रतिपादित है। तथा न्यायसे भी यही सिद्ध होता है, क्योंकि न्यायत: च निरवयवम् अपरतन्त्रम् आत्मतत्त्व अवयवरहित, स्वतन्त्र और विकार- अविक्रियम् आत्मतत्त्वम् इति राजमार्गः। रहित है। ऐसा मानना ही राजमार्ग है । यदि आत्माको विकारवान् मानें तो भी इसका विक्रियावत्त्वाभ्युपगमे अपि आत्मनः स्वकीय विकार ही अपना हो सकता है । अधिष्ठा- स्वकीया एव विक्रिया स्वस्थ भवितुम् अर्हति। नादिके किये हुए कर्म आत्म-कर्तृक नहीं हो सकते । न अधिष्ठानादीनां कर्माणि आत्मकर्तृकाणि क्योंकि अन्यके कर्मोको बिना किये ही अन्यके पल्ले बाँध देना उचित नहीं है। जो अविद्यासे स्युः । न हि परस्य कर्म परेण अकृतम् आगन्तुम् आरोपित किये जाते हैं, वे वास्तवमें उसके अर्हति । यत् तु अविद्यया गमितं न तत् तस्य ! नहीं होते।