पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४२३

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rien:TRUID. . Naik PRASHARMER WRITERARAMATKANERNA -.-... mainPIANS ............................ शांकरभाष्य अध्याय १८ . यथा रजतत्वं न अतिकाया। पथा का तल्ल अली आदित कादीपन सौपका नहीं होता मलबत्त्वं बालै गमितम् अविद्ययान आकाशस्य। नई जैसे मुखोद्वारा आकाशने आरोपित की हुई समीनता आकाबाकी नहीं हो सकती, वैसे ही तथा अधिष्ठानादिविक्रिया अपि तेषाम् एव इति अभियानादि पाँच हेतुओंके विकार भी उनके ही है, आत्माके नहीं। तस्माद् युक्तम् उक्तम् अहंकृतत्वद्धिलेपा- सुतर यह ठीक ही कहा है कि 'मैं कर्ता हैं ऐसी भावनाका और बुद्धि के लेपका अभाव होनेके भावाद् विद्वान् न हन्ति न निबध्यते इति । कारण पूर्ण ज्ञानी न मारता है और न बँधता है ! 'नायं हन्ति न हन्यते' इति प्रतिज्ञाय दूसरे अध्याय में यह आत्मा न मारता है और न मारा जाता है इस प्रकार प्रतिज्ञा करके न जायते 'न जायते' इत्यादिहेतुवचनेन अधिक्रियत्वम् इत्यादि हेतुयुक्त बच्चन से आत्माका अविक्रियत्व आत्मन उक्त्वा वेदाविनाशिनम्' इति विदुषः बतलाकर, फिर 'वेदाविनाशिनम्' इस श्लोकले उपदेशक आदिमें विद्वान् के लिये संक्षेपमें कर्माधिकार- कर्माधिकारनिवृत्ति शास्त्रादी संक्षेपत उक्त्वा की निवृत्ति कहकर, जगह-जगह प्रसंग लाकर, मध्ये प्रसारितां च तत्र तत्र प्रसङ्गं कृत्वा इह बीच-बीच में जिसका विस्तार किया गया है, ऐसी कर्माधिकारकी निवृत्तिका, अत्र शास्त्र के अर्थका उपसंहरति शास्त्रार्थयिण्डीकरणाय विद्वान् संग्रह करने के लिये विद्वान् न मारता है और न बँधता न हन्ति न निबध्यते इति ।।

इस कथनसे उपसंहार करते हैं।

एवं च सति देहभृत्वाभिमानानुपपत्तो सुतरां यह सिद्ध हुआ कि, विद्वान्में देहधारी- पनका अभिमान न होनेके कारण उसके अविद्या- अविद्याकृताशेषकर्मसंन्यासोपपत्तेः संन्यासिनाम् कर्तृक समस्त कर्मोका संन्यास हो सकता है, इसलिये अनिष्टादि त्रिविधं कर्मणः फलं न भवति इति संन्यासियोंको अनिष्ट आदि तीन प्रकारके कर्मफल नहीं मिटले । साथ ही यह भी अनिवार्य है, कि उपपन्नं तद्विपर्ययात् च इतरेषां भवति इति दूसरे ( कर्माधिकारी ) इससे विपरीत होते हैं इस कारण उनको तीन प्रकारके कर्मफल (अवश्य) मिलते एतद् च अपरिहार्यम् इति एष गीताशास्त्रस्य हैं। इस प्रकार यह गीताशास्त्र के अर्थका उपसंहार अर्थ उपसंहृतः। किया गया । स एष सर्ववेदार्थसारो निपुणमतिभिः ऐसा यह समस्त वेदोंके अर्थका सार, निपुणबुद्धि- पण्डितैः विचार्य प्रतिपत्तव्य इति तत्र तत्र वाले पण्डितोंद्वारा विचारपूर्वक धारण किया जाने योग्य है। इस विचारसे हमने जगह-जगह प्रकरणों- प्रकरणविभागेन दर्शितः असाभिः शास्त्र का विभाग करके, शास्त्र न्यायानुसार इस तत्वको न्यायानुसारेण ॥१७॥ दिखलाया है ॥१७॥