पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४२७

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VAAHEBSITCAMES शांकरभाष्य अध्याय १८ कार्य सक्तम् । यत् तु ज्ञानं कृत्स्नवत् समस्तवत् सर्वाविषयम् जो ज्ञान, किसी एक कार्यमें, शरीरमें या शरीर- इव एकस्मिन् कार्ये देहे बहिः या प्रतिमादौ से बाहर प्रतिमा दिने, सववस्तुविषयक संपूर्ण ज्ञानकी भौति आसक्त है, अर्थात् यह समझता है कि लकदरतावान् एव आत्मा ईश्वरो वा न अतः यह आना या इलर इतना ही है इससे परे और एरम् अस्ति इति यथा ननक्षपणकादीनां कुछ भी नहीं है, जैसे दिगम्बर जैनियोंका ( माना शरीरानुवर्ती देहपरिमाणो जीव ईश्वरो वा हुआ) आत्मा शीरमें रहनेवाला और शरीरके दापाणदा दिमात्र इति एवम् एकस्मिन् बरावर है और पथर या काष्ट (की प्रतिमा ) मात्र ही ईश्वर है, इसी प्रकार जो शान किसी एक कार्यनं ही आता है। अईतुकं हेतुवजितं नियुक्तिकम् अतरवार्थबद् तथा जो हेतुरहित-युक्तिरहित और तत्त्वार्थसे यथाभूतः अर्थः तत्त्वार्थः सः अस्य ज्ञेयभूतः भी रहित है ! यथार्थ अर्थका नाम तत्त्वार्थ है, ऐसा तत्त्वार्थ जिन ज्ञानका ज्ञेय हो, वह ज्ञान तत्त्वार्थ- अस्ति इति तत्त्वार्थवद् न तत्त्वार्थवद् अतत्वा-

युक्त होता है और जो तत्त्वार्थ-युक्त न हो वह

र्थवद् अहेतुकत्वाद् एव अल्पं च अल्पविषय- अतत्त्वार्थवत् अर्थात् तत्त्वार्थसे रहित होता है । त्वाद् अल्पफलत्वाद् वा तत् तामसम् उदाहृतम् । एवं जो हेतुरहित होने के कारण ही अल्प है तामसानां हि प्राणिनाम् अविवेकिनाम् ईदृशं होनेसे अल्प है, वह ज्ञान तामस कहा गया है, अधवा अल्पविषयक होनेसे या अल्प फलवाला ज्ञानं दृश्यते ॥२२॥ क्योंकि अविवेकी तामसी प्राणियोंमें ही ऐसा ज्ञान देखा जाता है ॥ २२ ॥ अथ कर्मणः त्रैविध्यम् उच्यते- अब कर्मके तीन भेद कहे जाते हैं- नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् । अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ २३ ॥ नियतं नित्यं सङ्गरहितम् आसक्तिवर्जितम् , जो कर्म नियत-नित्य है तथा सङ्ग-आसक्तिसे अरागद्वेषतः कृतं रागप्रयुक्तेन द्वेषप्रयुक्तेन च रहित है और फल न चाहनेवाले पुरुषद्वारा बिना राग-द्वेषके किया गया है, वह सात्विक कहा कृतं रागद्वेषतः कृतं तद्विपरीतं कृतम् अराग- जाता है । जो कर्म रागसे या द्वेपसे प्रेरित होकर किया जाता है, वह राग-द्वेषसे किया हुआ द्वेषतः कृतम् अफलप्रेप्सुना फलं प्रेप्सति इति कहलाता है और जो उससे विपरीत है वह बिना फलप्रेप्सुः फलतृष्णः तद्विपरीतेन अफल- राग-द्वेषके किया हुआ है। जो कर्ता कर्मफलको प्रेप्सुना का कृतं. कर्म यत् तत् सात्त्विकम् चाहता है, वह कर्मफलप्रेसु अर्थात् कर्मफलकी तृष्णावाला होता है और जो उससे विपरीत है, उच्यते ॥२३॥

वह कर्मफलको न चाहनेवाला है ।। २३ ॥