पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४२९

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HABARRARMANANDHIRamamare FanSTEROINTERNATPSRTEESEARCH शांकरभाध्य अध्याय १८ . एवम् प्रात्मसायथ्यम्, आणि एनानि : कालकाय इन सनन्त भाजी अपेक्षा न करके-- अनुमन्याई विजय पोल्यान्तानि मोहाद हुमी बनाइ न करके, जो कर्म, मोहसे--अज्ञानसे अशिकत अरन्यने कन या ऋत् नाम आनन किया जाना है, वह तामस-तमोगुगपूर्वक तमोनिच्चत्तम् उन्यने ।। २५ ॥ किया हुआ कहा जाता है ।।२५॥

मुन्तसङ्गोऽनयादी धृत्युत्लाहसमन्वितः । सिद्धयसिहयोनिनिकारः कर्तालात्विक उच्यते ॥ २६ ॥ मुक्तसङ्गो मुक्तः परित्यात मजा अनम के कान मुलता है--जिसने आलतिका त्याग मुक्तसङ्गः अनहंबादा न अबदनशीलो कर दिया है, जो निम्बादी है-जितका 'मैं कर्ता धृत्युत्साहसमन्वितो धृतिः धारणम् उत्साह उमः हूँ से कहनेका स्वभाव नहीं रह गया है, जो ताम्यां समन्धितः संयुक्तो धृत्युत्याहसमन्वितः धृति और उल्लाहने युक्त है-धृति यानी धारणाशक्ति सिद्धयसिद्धयोः क्रियमागय कर्मणः फलसिदी और उत्साह वानी उम-इन दोनों से जो युक्त है, असिद्धौ च सिद्धयसि छुचो निर्विकारः केवलं था जो कि दुर कर्मके फलकी लिद्धि होने या न झोनमें निर्विकार है। जो ऐसा कर्ता है, वह शास्त्रप्रमाणप्रयुक्तो ने कुलरागादिना नाम साच्चिक कहा जाता है। जो केवल शास्त्रप्रमाणसे निर्विकार उच्यते । एवंभूतः भर्ता यः स ही कर्ममें प्रयुक होला है, फलेच्छा या आसक्ति सात्विक उच्यते ॥ २६ ॥ आदिमें नहीं, वह निर्विकार कहा जाता है ।। २६ ॥ रागी कर्मफलप्रेमुलुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः । हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।। २७ ।। रागी रागः अस्य अन्ति इति रागी, कर्म- जो कर्ता रागी है जिसमें राम यानी आसक्ति फलप्रेप्सुः कर्मफलार्थी लुब्धः परद्रव्येषु विद्यमान है, जो कर्मफलको चाहनेत्राला है-कर्म- कलकी इच्छा रखता है, जो लोभी यानी दूसरोंके संजाततृष्णा तीर्थादौ च स्वद्रव्यापरित्यागी। धनमें तृजा रखनेवाला है और तीर्थादि ( उपयुक्त देशका) में भी अपने धनको खर्च करनेवाला नहीं है। हिंसात्मकः परपीडास्वभावः अशुचिः बाह्यान्न तथा जो हिंसात्मक-दूसरोंको कष्ट पहुँचानेके शौचवर्जितो हर्षशोकान्त्रित इष्टप्राप्ती हर्षेः स्वभाववाला, अशुचि-बाहरी और भीतरी दोनों प्रशारकी शुद्धिसे रहित और हर्ष-शोक से लिप्त यानी अनिष्टप्राप्तौ इष्टवियोगे च शोकः ताभ्यां इष्ट पदार्थकी प्राप्तिमें हर्ष एवं अनिष्टकी प्राप्ति और हर्षशोकाभ्याम् अन्वितः संयुक्तः तस्य एव च इष्टके वियोग होनेवाला शोक-इन दोनों प्रकारके भात्रोंसे युक्त है. ऐसे पुरुषको ही कर्मोकी सिद्धि- कर्मणः संपत्तिविपत्त्योः हर्षशोको स्यातां ताभ्यां असिद्धिमें हर्ष-शोक हुआ करते हैं, अतः जो कर्ता उन संयुक्तो यः कर्ता स राजसः परिकीर्तितः ॥ २७॥ दोनोंसे युक्त हैं, वह राजस कहा जाता है ।। २७ ॥