पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४३०

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श्रीमद्भगवद्गीता अयुक्तःप्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः । विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥ २८ ॥ अयुक्तः असमाहितः, प्राकृतः अत्यन्तासंस्कृत- जो कर्ता अयुक्त है जिसका चित्त समाहित

नहीं है, जो बालकके समान प्राकृत—अत्यन्त

बुद्धिः बालसमः, स्तब्धा दण्डवद् न नमति संस्कारहीन बुद्धिवाला है, जो स्तब्ध है---दण्डकी कस्मैचित्, शठो मायावी शक्तिगूहनकारी, भाँति किसीके सामने नहीं झुकता, जो शठ अर्थात् नैष्कृतिकः परवृत्तिच्छेदनपरः, अलसः अप्रवृत्ति- ' नैष्कृतिक-दूसरोंकी वृत्तिका छेदन करनेमें तत्पर अपनी सामर्थ्यको गुप्त रखनेवाला—कपटी है, जो शील' कर्तव्येषु अपि, विषादी सर्वदा अवसन्न- । और आलसी है-जिसका कर्तव्य कार्यमें भी खभावः, दीर्घसूत्री च कर्तव्यानां दीर्घप्रसारणो प्रवृत्त होनेका स्वभाव नहीं है, जो विषादी-सदा शोकयुक्त खभाववाला और दीर्घसूत्री है-कर्तव्यों यद् अद्य श्वो वा कर्तव्यं तद् मासेन अपि ! बहुत विलम्ब करनेवाला है अर्थात् आज या कल लेनेयोग्य कार्यको महीनेभरमें भी समाप्त नहीं न करोति, यः च एवंभूतः कर्ता स तामस | कर पाता, जो ऐसा कर्ता है वह तामस कहा उच्यते ॥२८॥ iजाता है ॥२८॥ । कर शृणु। बुद्धर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ॥ २६ ॥ बुद्धेः भेदं धृतेः च एव भेदं गुणतः सत्यादि- ! हे धनंजय ! बुद्धिके और धृतिके भी सत्त्वादि गुणतः त्रिविधं शृणु इति सूत्रोपन्यासः, | गुणों के अनुसार तीन-तीन प्रकारके भेद, तू विभाग- प्रोच्यमानं कथ्यमानम् अशेषेण निरवशेषतो । पूर्वक संपूर्णतासे यथावत् कहे हुए सुन । यह सूत्र- यथावत् पृथक्त्वेन विवेकतो धनंजय । | रूपसे कहना है। दिग्विजये मानुषं दैवं च प्रभृतं धनम् दिग्विजयके समय अर्जुनने मनुष्योंका और देवोंका बहुत-सा धन जीता था, इसलिये उसका अजयत् तेन असौ धनंजयः अर्जुनः ॥ २९॥ नाम धनञ्जय हुआ ॥ २९॥ प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये । बन्धं मोक्षं च यावेत्तिबुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ ३० ॥ प्रवृत्तिं च प्रवृत्तिः प्रवर्तनंबन्धहेतुः कर्ममार्गः, जो बुद्धि, प्रवृत्तिको इन्धनके हेतुरूप कर्म- मार्गको और निवृत्तिको-मोक्षके हेतुरूप संन्यास- निवृत्तिं च निवृत्तिः मोक्षहेतुः संन्यासमार्गः, | मार्गको, जानती है । बन्ध और मोक्षके साथ प्रवृत्ति बन्धमोक्षसमानवाक्यत्वात् प्रवृत्तिनिवृत्ती और निवृत्तिको समानवाक्यता है, इससे यह निश्चय होता है कि प्रवृत्ति और निवृत्तिका अर्थ कर्मसंन्यासमागौं इति अवगम्यते । कर्ममार्ग और संन्यासमार्ग ही है ।