पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४३१

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BASNEHRARIANE PraMSAINSTAIMIMSALITYANARAARAMER: शांकरभाष्य अध्याय १८ . कार्याकार्ये विहितप्रतिषिद्धे कर्तव्याकर्तच्थे तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको.--विधि और प्रतिवेधको यानी करनेयोग्य और न करनेयोग्यको करणाकरणे इति एतन्, कस, देशकाला- (भी जानती हैं। यह कहना किसके सम्बन्धमें है । देश-काल आदिकी अपेक्षासे जिनके इष्ट और पेक्षया दृष्टादृष्टार्थानां कर्मणाम् । अदृष्ट मल होते हैं, उन कमाके सम्बन्धौ । भयाभये विभेति असाद् इति भयं तथा जो बुद्धि भय और अभयको-जानती तद्विपरीतम् अभयं भयं च अभयं च भयाभये है। जिससे मनुष्य भयभीत होता है. उसका नाम भय है और उससे विपरीतका नाम अभय है; दृष्टादृष्टविषययोः भयाभश्योः कारणे इत्यर्थः । उन दोनोंको, यानी दृष्टादृष्ट-विषयक जो भय और बन्ध सहेतुकं मोक्षं च सहेतुकं या वेत्ति विजानाति अभय है उन दोनोंके कारणोंको जानती है, एवं हेतुसहित बन्धन और मोक्षको भी जानती है, हे बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी। पार्थ! वह बुद्धि सात्त्विकी है। तत्र ज्ञान बुद्धेः वृत्तिः बुद्धिः तु वृत्तिमती। पहले जो ज्ञान कहा गया है, वह बुद्धिकी एक वृत्तिविशेष है और बुद्धि वृत्तिवाली है। धृति भी धृतिः अपि वृत्तिविशेष एव बुद्धः ॥ ३० }} बुद्धिकी वृत्तिविशेष ही है ॥ ३० ॥ यथा धर्ममधर्म च कार्य चाकार्यमेव च। अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥ ३१ ॥ यया धर्म शास्त्रचोदितम् अधर्म च तत्प्रतिषिद्धं हे पार्थ ! जिस बुद्धिके द्वारा मनुष्य शास्त्रविहित कार्य च अकार्यम् एव च पूर्वोक्ते एव कार्याकार्ये. धर्मको और शास्त्रप्रतिषिद्ध अधर्मको, एवं पूर्वोक्त अयथावद् न यथावत् सर्वतो निर्णयेन न कर्तव्य और अकर्तव्यको, यथार्थरूपसे-सर्वतोभावसे प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।।३१।। निर्णयपूर्वक, नहीं जानता, वहबुद्धि राजसी है ॥३१॥ अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थाविपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ ३२ ॥ अधर्म प्रतिषिद्ध धर्म विहितम् इति या मन्यते हे पार्थ! जो तमोगुणसे आवृत हुई बुद्धि जानाति तमसा आवृता सती सर्वार्थान् सर्वान् अधर्मको-निषिद्ध कार्यको, धर्म मान लेती है, यानी शास्त्रविहित मान लेती है, तथा जाननेयोग्य एव ज्ञेयपदार्थान् विपरीतान् च विपरीतान् एव अन्यान्य समस्त पदार्थो को भी, जो विपरीत ही विजानाति बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥३२॥ समझती है, वह तामसी है ॥ ३२ ॥