पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४३४

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- in.anirwin-rior श्रीमद्भगवद्गीता तत् सुखं सात्विकं प्रोक्तं विद्वद्भिः आत्मनो वह आत्म-बुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न हुआ सुख, विद्वानोंद्वारा सात्त्विक बतलाया गया है। अपनी बुद्धिः आत्मबुद्धिः आत्मबुद्धः प्रसादो बुद्धिका नाम आत्मबुद्धि है, उसका जो जलकी भाँति स्वच्छ निर्मल हो जाना है, वह आत्मबुद्धि- नैर्मल्यं सलिलवत् स्वच्छता ततो जातम् आत्म- प्रसाद है, उससे उत्पन्न हुआ सुख आत्मबुद्धि- प्रसादजन्य सुख है। अथवा, आत्मविषयक या बुद्धिप्रसादजम् आत्मविषया वा आत्मावलम्बना आत्माको अवलम्बन करनेवाली बुद्धिका नाम वा बुद्धिः आत्मबुद्धिः तत्प्रसादप्रकर्षाद् वा आत्मबुद्धि है, उसके प्रसादकी अधिकतासे उत्पन्न सुख आत्मबुद्धिप्रसादसे उत्पन्न है, इसीलिये वह जातम् इति एतत् तस्मात् सात्त्विकं तत् ॥ ३७॥ सात्त्विक है ।। ३७ ॥ विषयेन्द्रियसंयोगायत्तद्ग्रेऽमृतोपमम् परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥ विषयेन्द्रियसंयोगाद् यत् तत् सुखं जायते जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे उत्पन्न होता है, वह पहले–प्रथम क्षणमें, अमृतके अने प्रथमक्षणे अमृतोपमम् अमृतसमं परिणाम सदृश होता है, परन्तु परिणाममें विषके समान है। विषम् इव बलवीर्यरूपप्रज्ञामेधाधनोत्साहहानि- | अभिप्राय यह कि बल, वीर्य, रूप, बुद्धि, मेधा, धन और उत्साहकी हानिका कारण होनेसे, तथा हेतुत्वाद् अधर्मतजनितनरकादिहेतुत्वात् च अधर्म और उससे उत्पन्न नरकादिका हेतु होनेसे, परिणामे तदुपभोगविपरिणामान्ते विषम् इव वह परिणाममें-~-अपने उपभोगका अन्त होनेके पश्चात्, विषके सदृश होता है; अतः ऐसा सुख तत् सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥ राजस माना गया है ॥ ३८ ॥ यदने चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः । निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३६ ॥ यद् अप्रे च अनुबन्धे च अवसानोत्तरकाले जो सुख आरम्भमें और परिणाममें भी अर्थात् सुखं मोहन मोहकरम् आत्मनो निद्रालत्यप्रमादोत्थं उपभोगके पीछे भी, आमाको मोहित करनेवाला निद्रा च आलस्यं च प्रमादः च इति एतेभ्यः होता है, तथा निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न हुआ है, अर्थात् जो निद्रा, आलस्य और प्रमाद- समुत्तिष्ठति इति निद्रालस्वप्रमादोत्थं तत् इन तीनोंसे उत्पन्न होता है, वह सुख तामस तामसम् उदाहृतम् ॥ ३९॥ कहा गया है ।। ३९॥