पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४३७

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कसराम Ramananeerinari Hy शांकरभाष्य अध्याय १८ एवं स्वभावग्रमवैः प्रकृतिप्रभवः सत्त्वरज- इस प्रकार स्वभावसे उत्पन्न हुए अर्थात् प्रकृतिसे समोभिः गुः स्वकार्यानुरूयेण शमादीनि उत्पन्न हुए सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों- द्वारा अपने-अपने कार्यक अनुरूप शमादि कर्म कर्माणि अविभत्तानि । विभक्त किये गये हैं। ननु शास्त्रप्रविभक्तानि शालेण विहितानि पू०-ब्राह्मणादि वणोंके शम आदि कर्म तो ब्राह्मणादीनां शमादीनि कर्माणि कथम् उच्यते शास्त्रद्वारा विभक्त हैं, अर्थात् शास्त्रद्वारा निश्चित किये गये हैं, फिर यह कैसे कहा जाता है, कि सत्य आदि सच्चादिगुणप्रविभक्तानि इति । तीनों गुणोंद्वारा विभक्त किये गये हैं ? न एष दोषः, शास्त्रेण अपि ब्राह्मणादीनां उ०-यह दोष नहीं है. क्योंकि शास्त्रद्वारा भी सत्त्वादिगुणविशेषापेक्षया एव शमादीनि ब्राह्मणादिके शमादि कर्म सस्वादि गुष्य-भेदोंकी कर्माणि प्रविभक्तानि न गुणानपेक्षया एव अपेक्षासे नहीं । अतः शास्त्रद्वारा विभक्त किये हुए अपेक्षासे ही विभक्त किये गये हैं, बिना गुणोंकी इति शास्त्रप्रविभक्तानि अपि कर्माणि गुणप्रवि- भी कर्म, गुणोंद्वारा विभक्त किये गये हैं, ऐसा कहा भक्तानि इति उच्यन्ते ॥४॥ जाता है ॥४॥ बतलाया कानि पुनः तानि कर्माणि इति उच्यन्ते- वे कर्म कौन-से हैं ? यह जाता है- शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ ४२ ॥ शमो दमः च यथाव्याख्याताओं, तपो जिनके अर्थकी व्याख्या पहले की जा चुकी हैं, यथोक्तं शारीरादि, शौचं व्याख्यातम् । वे शम और दम तथा पहले कहा हुआ शारीरिकादि- क्षान्तिः भेदसे तीन प्रकारका तप, एवं पूर्वोक्त (दो प्रकारका) क्षमा, आर्जवम् ऋजुता एव च, ज्ञानं विज्ञानम् , शौच, क्षान्ति-क्षमा, आजब-अन्तःकरणकी सरलता तथा ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता अर्थात् शास्त्रके आस्तिक्यम् अस्तिभावः श्रधानता आगमार्थेषु, वचनोंमें श्रद्धा-विश्वास, ये सब ब्राह्मणके स्वाभाविक ब्रह्मकर्म ब्राह्मणजातेः कर्म ब्रह्मकर्म स्वभावजम् । कर्म हैं अर्थात् ब्राह्मण जातिके कर्म हैं । यद् उक्तम् 'स्वभावप्रभवैः गुणैः प्रविभक्कानि' जो बात 'स्वभावजन्य गुणोंसे कर्म विभक्त किये गये हैं इस वाक्यसे कही थी, वहीं यहाँ इति तद् एव उक्तं खभावजम् इति ॥४२॥ 'स्वभावजम्' पदसे कही गयी है ॥४२॥ शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षत्रकर्म स्वभावजम् ॥ ४३ ॥