पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४३९

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Ta'. Researnium...... incentra.g शांकरभाष्य अध्याय १८ कारणान्तरात् तु इदं वक्ष्यमाणं फलम्- परन्तु दूसरे कारणले । उनका प्रकारान्तरले अन्तुष्टान करनेगर ) यह अब तलाया जानेवाला खे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ ४५ ॥ स्खे स्वे यथोक्तलक्षमभेदे कर्मशि अभिरतः कमाधिकारी मनुष्य, उक्त लक्षणांवाले अपने- तत्परः संसिद्धिं स्वकर्मानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये अपने कमाने अभिरत-तत्पर हुआ, संसिद्धि लाभ करता है। अर्थात् अपने कर्मोका अनुष्ठान करनेसे सति कायेन्द्रियाणां ज्ञाननिष्ठायोन्यतालक्षणो अशुद्रिका क्षय होनेपर, शरीर और इन्द्रियोंकी लभते ग्रामोति नरः अधिकृतः पुरुषः ज्ञाननिष्ठाकी योग्यतारूप सिद्धि प्राप्त कर लेता है। किं स्वकर्मानुष्ठानत एव साक्षाद संसिद्धिः। तो क्या अपने कर्मोका अनुष्ठान करनेसे ही साक्षात् संसिद्धि मिल जाती है ? नहीं । तो किस न, कथं तर्हि वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा येन तरह मिलती है? अपने कमीने तत्पर हुआ मनुष्य, प्रकारेण विन्दति तत् शृणु ॥४५॥ जिस प्रकार सिद्धि लाभ करता है, वह तू सुन ।। ४५॥ यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्य सिद्धि विन्दति मानवः ॥ ४६॥ यतो यस्मात् प्रवृत्तिः उत्पत्तिः चेष्टा वा जिस अन्तर्यामी ईश्वरसे समस्त प्राणियोंकी यस्माद् अन्तर्यामिण ईश्वराद् भूतानां प्राणिनां प्रवृत्ति यानी उत्पत्ति या चेष्टा होती है और जिस साद् येन ईश्वरेण सर्वम् इदं जगत् ततं व्याप्तम्, ईश्वरसे यह सारा जगत् व्याप्त है, उस ईश्वरको स्वकर्मणा पूर्वोक्तेन प्रतिवर्ण तम् ईश्वरम् अभ्यर्य , प्रत्येक वर्णके लिये पहले बतलाये हुए अपने पूजयित्वा आराध्य केवलं ज्ञाननिष्ठा- कर्मोद्वारा पूजकर---उसकी आराधना करके मनुष्य योग्यतालक्षणां सिद्धि विन्दति मानवो केवल ज्ञाननिष्टाकी योग्यतारूप सिद्धि प्राप्त मनुष्यः ॥ ४६॥ कर लेता है ।। ४६॥ यत एवम् अत:- ऐसा होनेके कारण--- श्रेयान्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४७ ।।