पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४४०

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श्रीमद्भगवद्गीता श्रेयान् प्रशस्यतरः स्वो धर्मः खधर्मो विगुणः अपना गुणरहित भी धर्म, दूसरेके भली प्रकार अपि इति अपिशब्दो द्रष्टव्या, परधर्मात् | अनुष्ठान किये हुए धर्मसे श्रेष्ठतर है। जैसे विषमें खनुष्ठितात् स्वभावनियतं स्वभावेन नियतम्, यद् उत्पन्न हुए कीड़ेके लिये विष दोपकारक नहीं होता, उसीप्रकार स्वभावसे नियत किये हुए कमों को उक्तम् ‘स्वभावजम्' इति तद् एव उक्तं स्वभाव- | करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता। जो नियतम् इति, यथा विषजातस्य इव कमेः विषं बात पहले 'स्वभावजम्' इस पदसे कही थी, वही न दोषकर तथा स्वभावनियतं कर्म कुर्वन् न । यहाँ 'स्वभावनियतम्' इस पदसे कही गयी है । स्वभाव- आप्नोति किल्विषं पापम् ॥४७॥ से नियत कर्मका नाम समावनियत है ॥१७॥ स्वभावनियतं कर्म कुर्वाणो विषजात इच उपर्युक्त श्लोकमें यह बात कही, कि स्वभाव- नियत कर्मोको करनेवाला मनुष्य, विषमें जन्में कृमिः किल्विषं न आमोति इति उक्तम् । कीड़ेकी भाँति पापको प्राप्त नहीं होता, तथा परधर्मः च भयावह इति । अनात्मज्ञः च न (तीसरे अध्यायमें ) यह भी कहा है कि दूसरेका हि कश्चित् क्षणम् अपि अकर्मकृत् तिष्ठति धर्म भयावह है और कोई भी अज्ञानी बिना कर्म इति, अतः- किये क्षणभर भी नहीं रह सकता ।' इसलिये---- सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥४८॥ सहज सह जन्मना एव उत्पन्नं सहजं कि जो जन्मके साथ उत्पन्न हो उसका नाम सहज कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि त्रिगुणत्वाद् होने के कारण जो दोषयुक्त है, ऐसे दोषयुक्त भी | है । वह क्या है ? कर्म । हे कौन्तेय ! त्रिगुणमय तत् न त्यजेत् । अपने सहज-कर्मको नहीं छोड़ना चाहिये। सर्वारम्भा आरभ्यन्ते इति आरम्भाः सर्व- क्योंकि सभी आरम्भ-जो आरम्भ किये जाते कर्माणि इति एतत् प्रकरणात् । ये केचिद् हैं उनका नाम आरम्भ है, अतः यहाँ प्रकरणके आरम्भाः स्वधर्माः परधर्माः च ते सर्वे हि अनुसार सर्वारम्भका तात्पर्य समस्त कर्म है। सो स्वधर्म या परवर्मरूप जो कुछ भी कर्म हैं, वे यसात् त्रिगुणात्मकत्वम् अत्र हेतुः त्रिगुणात्म- सभी तीनों गुणोंके कार्य हैं, अतः त्रिगुणात्मक कत्वाद् दोषेण धूमेन....सहजेन अग्निः इब होनेके कारण, साथ जन्मे हुए धुएँसे अग्निकी भाँति दोषसे आवृत हैं। आवृताः । सहजस्य कर्मणः स्वधर्माख्यस परित्यागेन अभिप्राय यह है कि स्वधर्म नामक सहज- परधर्मानुपाने अपि दोषाद् न एव मुच्यते, कर्मका परित्याग करनेसे और परधर्मका ग्रहण करनेसे भी, दोषसे छुटकारा नहीं हो सकता और भयावहः च परधर्मः । न च शक्यते अशेषतः परधर्म भयावह भी है; तथा अज्ञानीद्वारा संपूर्ण त्यक्तुम् अज्ञेन कर्म यतः तस्माद् न त्यजेद् कमोंका पूर्णतया त्याग होना सम्भव भी नहीं है; इत्यर्थः। सुतरां सहज-कर्मको नहीं छोड़ना चाहिये।

    • भाष्यकार विगुण शब्दके बाद 'अपि' वाक्यशेष मानते हैं इसलिये भाषामें अपि शब्द का अर्थ

कर दिया गया है।