पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४४२

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४२८ श्रीमद्भगवद्गीता कथम् ? अस्मिन् यक्षे को दोष इति ? पू०--इस पक्षमें क्या दोष है ? अयम् एव तु दोषो यतः तु अभागवतं मतम् उ०-इसमें प्रधान दोष तो यही है कि यह मत भगवान्को मान्य नहीं है। कथं ज्ञायते ? यूoयह कैसे जाना जाता है ? यत आह भगवान् 'नासतो विद्यते भावः' उ०-इसीलिये कि भगवान् तो 'असत् इत्यादि । काणादानां हि असतोभावः सतःच वस्तुका कभी भाव नहीं होता' इत्यादि वचन कहते हैं और वैशेषिक-मतवादी असत्का भाव अभाव इति इदं मतम् । और सत्का अभाव मानते हैं। अभागवतत्वे अपि न्यायवत् चेत् को दोष पू०-भगवान्का मत न होनेपर भी यदि न्याय- इति चेत् । युक्त हो तो इसमें क्या दोष है ? उच्यते, दोषवत् तु इदं सर्वप्रमाण- उ०-बतलाते हैं (सुनो) सब प्रमाणोंसे इस मत- विरोधात् । का विरोध होनेके कारण भी, यह मत दोषयुक्त है। पू०-किस प्रकार ? यदि तावद् द्वथणुकादि द्रव्यं प्राग उत्पत्तेः | -यदि यह माना जाय कि द्वयणुक आदि अत्यन्तम् एव असद् उत्पन्नं च स्थित कंचित द्रव्य उत्पत्ति से पहले अत्यन्त असत् हुए ही उत्पन्न हो जाते हैं और किञ्चित् काल स्थित रहकर फिर कालं पुनः अत्यन्तम् एव असत्त्वम् आपद्यते । अत्यन्त ही असत् भावको प्राप्त हो जाते हैं, तब तथा च सति असद् एव सद् जायते अभावो तो यही मानना हुआ कि असत् ही सत् हो जाता | है अर्थात् अभाव भाव हो जाता है और भाव अभाव भावो भवति भावः च अभाव इति । हो जाता है। तत्र अभावो जायमानः प्राग उत्यत्तेः शश- अर्थात् ( यह मानना हुआ कि) उत्पन्न होनेवाला अभाव, उत्पत्तिसे पहले शश-शृङ्गकी विषाणकल्पः समवाय्यसमवायिनिमित्ताख्यं भाँति सर्वथा असत् होता हुआ ही, समवायि- असमवायि और निमित्त नामक तीन कारणोंकी कारणम् अपेक्ष्य जायते इति । सहायतासे उत्पन्न होता है। न च एवम् अभाव उत्पद्यते कारणं वा परन्तु अभाव इस प्रकार उत्पन्न होता है अथवा कारणकी अपेक्षा रखता है.----यह कहना नहीं बनता, अपेक्षते इति शक्यं वक्तुम् असतां शशविषाणा- क्योंकि खरगोशके सींग आदि असत् वस्तुओंमें ऐसा दीनाम् अदर्शनात् । नहीं देखा जाता। भावात्मका: चेद् घटादय उत्पद्यमानाः हाँ,यदि यह माना जाय कि उत्पन्न होनेवाले घटादि किंचिद् अभिव्यक्तिमात्रकारणम् अपेक्ष्य भावरूप हैं और वे अभिव्यक्तिके किसी कारणकी उत्पद्यन्ते इति शक्यं प्रतिपत्तुम् । सहायतासे उत्पन्न होते हैं,तो यह माना जा सकता है।