पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४४३

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शांकरभाष्य अध्याय १८ ४२६ किं च असतः च सद्भावे सत:च असद्भाने . तथा असत्का सत् और सत्का असत् होना न कचित् प्रमाणप्रमेयव्यवहारे विश्वासः | मान लेने पर तो, किसीका प्रमाण-प्रमेय-व्यवहारमें कहीं विश्वास ही नहीं रहेगा। क्योंकि ऐसा मान कस्यचित् स्यात् । सत् सद् एव असद् असद् ! लेनेसे फिर यह निश्चय नहीं होगा, कि सत् सत् एव इति निश्चयानुपपत्तेः। ही है और असत् असत् ही है। किं च उत्पद्यते इति द्वथणुकादेः द्रव्यस्य इसके सिवा वे 'उत्पन्न होता है। इस वाक्यसे । खकारणसत्तासंबन्धम् आहुः । प्रागुत्पत्तेः च दूयणुक आदि द्रव्यका अपने कारण और सत्तासे सम्बन्ध होना बतलाते हैं अर्थात् उत्पत्तिसे पहले असत् पश्चात् स्वकारणव्यापारम् अपेक्ष्य कार्य असत होता है, फिर अपने कारणके व्यापार- स्वकारणैः परमाणुभिः सत्तया च समवाय- की अपेक्षासे (सहायतासे) अपने कारणरूप परमाणुओंसे और सत्तासे समवायरूप सम्बन्धके लक्षणेन संबन्धेन संबध्यते संबद्धं सत् कारण- द्वारा संगठित हो जाता है और संगठित होकर समवेतं सद् भवति । कारणसे मिलकर सत् हो जाता है । तत्र वक्तव्यं कथम् असतः सत् कारणं भवेत् इसपर उनको बताना चाहिये कि असत्का कारण सत् कैसे हो सकता है ? और असत्का किसी- संबन्धो वा केनचित् । नहि बन्ध्यापुत्रस्य के साथ सम्बन्ध भी कैसे हो सकता है ? क्योंकि सत्ता संबन्धो वा कारणं वा केनचित् प्रमाणतः वन्ध्यापुत्रकी सत्ता, उसका किसी सत् पदार्थके साथ सम्बन्ध अथवा उसका कारण, किसीके भी कल्पयितुं शक्यम् । द्वारा प्रमाणपूर्वक सिद्ध नहीं किया जा सकता। ननु न एव वैशेषिकैः अभावस्य संवन्धः -वैशेषिक-मतवादी अभावका सम्बन्ध नहीं कल्प्यते द्वयणुकादीनां हि द्रव्याणां स्वकारणेन मानते । वे तो भावरूप दूधणुक आदि द्रव्योंका ह्रीं अपने कारणके साथ समवायरूप सम्बन्ध समवायलक्षणः संबन्धः सत्ताम् एव उच्यते इति । बतलाते हैं। न संबन्धात् प्राक् सत्त्वानभ्युपगमात् । उ०-यह बात नहीं है । क्योंकि ( उनके न हि वैशेषिकैः कुलालदण्डचक्रादिव्यापारात मतमें ) कार्य-कारणका सम्बन्ध होनेसे पहले कार्य- की सत्ता नहीं मानी गयी । अर्थात् वैशेषिक-मता- प्राग घटादीनां अस्तित्वम् इष्यते । न च मृद वलम्बी कुम्हार और दण्ड-चक्र आदिकी क्रिया आरम्भ होनेसे पहले घट आदिका अस्तित्व नहीं एवं घटायाकारप्राप्तिम् इच्छन्ति । ततः च मानते और यह भी नहीं मानते कि मिट्टीको ही असत एव संवन्धः पारिशेष्याद् इष्टो भवति । | घटादिके आकारकी प्राप्ति हुई हैं । इसलिये अन्तमें असत्का ही सम्बन्ध मानना सिद्ध होता है। ननु असतः अपि समवायलक्षणः संबन्धो न विरुद्ध पू०--असत्का भी समवायरूप सम्बन्ध होना विरुद्ध नहीं है।