पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४४५

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शांकरभाष्य अध्याय १८ अभिव्यक्तितिरोमावाङ्गीकरणे अपि अभिव्यक्ति (प्रकट होना) और तिरोभाव (छिप जाना)खीकार करनेसे भी, अभिव्यक्ति और अभिव्यक्तितिरोक्यो विद्यमानत्वाविद्यमान- तिरोभावकी विद्यमानता और अविद्यमानताका निरूपण करनेमें, पहलेकी भाँति ही प्रमाणसे स्वनिरूपणे पूर्ववद् एव प्रमाणविरोधः । विरोध होगा एतेन कारणस्य एव संस्थानम् उत्पत्त्यादि इस विवेचनसे 'कारणका कार्यरूपमें स्थित होना ही उत्पत्ति आदि हैं ऐसा निरूपण करनेवाले इति एतद् अपि प्रत्युक्तम् । । मतका भी खण्इन हो जाता है। पारिशेष्यात् सद् एकम् एव वस्तु अविद्यया इन सब मतोंका खण्डन हो जानेपर अन्त में उत्पत्तिविनाशादिधर्मः नटबद् अनेकधा यही सिद्ध होता है, कि 'एक ही सत्य तत्व (आत्मा) अविद्याद्वारा नटकी भाँति उत्पत्ति, विनाश आदि विकल्प्यते इति इदं भागवतं मतम् उक्तम् नासतो धर्मोंसे अनेक रूपमें कल्पित होता है ।' यही विद्यते भावः' इति अस्मिन् श्लोके । सत्- भगवान्का अभिप्राय 'नासतो विद्यते भावः' इस श्लोकमें बतलाया गया है। क्योंकि सत् प्रत्ययका प्रत्ययस्य अव्यभिचाराद् व्यभिचारात् च व्यभिचार नहीं होता और अन्य ( असत् )प्रत्ययों का इतरेषाम् इति । व्यभिचार होता है (अतःसत् ही एकमात्र तत्व है)। कथं तर्हि आत्मनः अविक्रियत्वे अशेषतः पू०-यदि (भगवान्के मतमें) आत्मा निर्विकार है तो (वे) यह कैसे कहते हैं कि 'अशेषतः कर्मोका कर्मणः त्यागो न उपपश्यते इति । त्याग नहीं हो सकता यदि वस्तुभूता गुमा यदि वा अविद्याकल्पिताः -शरीर-इन्द्रियादिरूप गुण चाहे सत्य बस्तु तद्धर्मः कर्म तदा आत्मनि अविद्याध्यारोपितम् हो,चाहे अविद्याकल्पित हों, जब कर्म उन्हींका धर्म है, तत्र आत्मामें तो वह अविद्याध्यारोक्ति ही है । इस एव इति अविद्वान् न हि कश्चित् क्षणमपि कारण कोई भी अज्ञानी अशेषतः कोका त्याग अशेषतः त्यक्तुं शक्नोति इति उक्तम् । क्षणभर भी नहीं कर सकता' यह कहा गया विद्वान् तु पुनः विद्यया अविद्यायां परन्तु विद्याद्वारा अविद्या निवृत्त हो जानेपर ज्ञानी तो कर्मोंका अशेषतः त्याग कर ही सकता है। निवृत्तायां शक्नोति एव अशेषतः कर्म परि- क्योंकि अविद्या नष्ट होनेके उपरान्त, अविद्या से अध्या- त्यक्तुम् अविद्याध्यारोपितस्य शेषानुपपत्ते। रोपित वस्तुका अंश वाकी नहीं रह सकता । न हि तैमिरिक दृष्टया अध्यारोपितस्य ( यह प्रत्यक्ष ही है कि) तिमिर-रोगसे विकृत हुई दृष्टिद्वारा अध्यारोपित दो चन्द्रमा अदिका द्विचन्द्रादेः तिमिरापगने शेष अवतिष्ठते । कुछ भी अंश, तिमिर-रोग नष्ट हो जानेपर, शेष नहीं रहता। ।