पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४४६

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श्रीमद्भगवद्गीता एवं च सति इदं वचनम् उपपन्न 'सर्वकाणि सुतरां 'सव कमाँको मनसे छोड़कर मनसा' इत्यादि 'स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं | इत्यादि कथन ठीक ही हैं । तथा 'अपने-अपने लभते नरः' 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति कों में लगे हुए मनुष्य संसिद्धिको प्राप्त होते हैं। 'मनुष्य अपने कर्मोसे उसकी पूजा करके सिद्धि मानवा' इति च ॥४८॥ प्राप्त करता है ये कथन भी ठीक हैं ॥४८॥ या च कर्मजा सिद्धिः उक्ता ज्ञाननिष्ठा- ज्ञाननिष्ठाकी योग्यताप्राप्तिरूप जो कर्म- योग्यतालक्षणा तस्याः फलभूता नैष्कर्म्यसिद्धिः जनित सिद्धि कही गयी है, उसकी फलभूत ज्ञान- ज्ञाननिष्ठालक्षणा वक्तव्या इति श्लोक | निष्ठारूप नैष्कर्म्यसिद्धि भी कही जानी चाहिये । आरभ्यते-- इसलिये अगला श्लोक आरम्भ किया जाता है- असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः । नैष्कर्म्यसिद्धि परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥ ४६॥ असक्तबुद्धिः असक्ता सङ्गरहिता बुद्धिः । जो सर्वत्र असक्तबुद्धि है---पुत्र, स्त्री आदि अन्तःकरणं यस्य सः असक्तबुद्धिः सर्वत्र | जो आसक्तिके स्थान हैं, उन सबमें जिसका अन्तः- पुत्रदारादिषु आसक्तिनिमित्तेषु । करण आसक्तिसे----प्रीतिसे रहित हो चुका है। जितात्मा जितो वशीकृत आत्मा अन्तःकरणं जो जितात्मा हैं---जिसका आत्मा यानी अन्तः- यस्य स जितात्मा। | करण जीता हुआ है अर्थात् वशमें किया हुआ है। विगतस्पृहो विगता स्पृहा तृष्णा देहजीवित- जो स्पृहारहित है-शरीर, जीवन और भोगोंमें भोगेषु यस्मात् स विगतस्पृहः । भी जिसकी स्पृहा-तृष्णा नष्ट हो गयी है । य एवंभूत आत्मज्ञः स नैष्कर्म्यसिद्धि जो ऐसा आत्मज्ञानी है, वह परम नैष्कर्म्य- निर्गतानि कर्माणि यमाद् निष्क्रियब्रह्मात्म- | सिद्धिको (प्राप्त करता है ) । निष्क्रिय ब्रह्म ही संबोधात् स निष्कर्मा तस्य भावो नैष्कम्यं आत्मा है यह ज्ञान होनेके कारण जिसके सर्वकर्म नैष्कर्म्य निवृत्त हो गये हैं वह 'निष्कर्मा' है। उसके भाव- तत् सिद्धिः च सा नाम 'नैष्कर्म्य' है और निष्कर्मतारूप नैष्कर्म्यसिद्धिः नैष्कर्म्यस्त्र वा सिद्धिः सिद्धिका नाम 'नैष्कर्म्यसिद्धि' है । अथवा निष्क्रियात्मवरूपावस्थानलक्षणस्य सिद्धिः निष्क्रिय आत्मस्वरूपसे स्थित होनारूप निष्पत्तिः तां नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां प्रकृष्टां निष्कर्मताका सिद्ध होना ही नैष्कर्म्यसिद्धि' है। ऐसी कर्मजसिद्धिविलक्षणां सबोमुक्त्यवस्थानरूपां जो कर्मजनित सिद्धिसे विलक्षण और सद्योमुक्तिों संन्यासेन सम्यग्दर्शनेन तत्पूर्वकेण वा सर्वकर्म- स्थित होनारूप उत्तम सिद्धि है, उसको संन्यासके संन्यासेन अधिगच्छति प्राप्नोति । तथा च उक्तम् कर्मसंन्यासके द्वारा, लाभ करता है; ऐसा ही कहा | द्वारा, यानी यथार्थ ज्ञानसे अथवा ज्ञानपूर्वक सर्व- 'सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्य नैव कुर्वन् कारय- भी है कि 'सब काँको मनसे छोड़कर न करता मास्ते' इति ॥४९॥ हुआ और न करवाता हुआ रहता है' ॥४९॥ च का