पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४४९

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PRADEEPART BHASRANAME .Netrentgharamaniamsteniorage-samirror " Amarru शांकरभाष्य अध्याय १८ देहचैतन्यवादिनः च लोकायतिका देहात्मवादी लोकायतिक, 'चेतनताविशिष्ट शरीर चैतन्यविशिष्टः काया पुरुष इति आहुः, तथा ही आत्मा है ऐसा कहते हैं, इत्तरे इन्द्रियोंको चेतन अन्ये इन्द्रियचैतन्यवादिनः । अन्ये मनश्चैतन्य- कहनेवाले हैं, तथा कोई मनको और कोई बुद्धिको वादिनः। अन्ये बुद्धिचैतन्यवादिनः । चेतन कहनेवाले हैं। ततः अपि अन्तरव्यक्तम् अव्याकृताख्यम् कितने ही, उस बुद्धिके भी भीतर व्यास, अविद्यावस्थम् आत्मत्वेन प्रतिपन्नाः केचित् । अव्यक्तको-अव्याकृतसंज्ञक अविद्यावस्थ (विदा- भास) को, आत्मारूपसे समझनेवाले हैं। सर्वत्र हि बुद्धयादिदेहान्ते आत्मचैतन्धा- बुद्धिसे लेकर शारीरपर्यन्त सभी जगह आत्म- चैतन्यका आभास ही उनमें आत्माकी भ्रान्तिका भासता आत्मभ्रान्तिकारणम् इति । कारण है। अत आत्मविषयं ज्ञानं न विधातव्यम् , किं अतः (यह सिद्ध हुआ कि) आत्मविश्यक ज्ञान विधेय नहीं है। तो क्या विधेय है ? नाम- तर्हि, नामरूपाचनात्माध्यारोपणनिवृत्तिः एव रूप आदि अनात्म वस्तुओका जो आत्मामें अध्या- कार्या न आत्मचैतन्यविज्ञानम् , अविद्याध्यारो- रोप है उसकी निवृत्ति ही कर्तव्य है । आत्मचैतन्य- का विज्ञान प्राप्त करना नहीं है। क्योंकि ज्ञान, पितसर्वपदार्थाकारैः एव विशिष्टतया गृह्य- अविद्याद्वारा आरोपित समस्त पदार्थोके आकारमें ही विशेषरूपसे ग्रहण किया हुआ है। अत एव हि विज्ञानवादिनो बौद्धा विज्ञान- यही कारण है कि विज्ञानवादी दौद्ध 'विज्ञानसे व्यतिरेकेण वस्तु एव न अस्ति इति प्रतिपन्नाः ; अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु ही नहीं है। इस प्रकार प्रमाणान्तरनिरपेक्षतां च स्वसंविदितत्वाभ्युप- मानते हैं। और उस ज्ञानको खसंवेद्य माननेके गमन । कारण प्रमाणान्तरको आवश्यकता नहीं मानते। तस्माद् अविद्याध्यारोपणनिराकरणमात्रं सुतरां ब्रह्ममें जो अविद्याद्वारा अन्यारोप किया गया है, उसका निराकरणमात्र कर्तव्य है। ब्रह्म- ब्रह्मणि कर्तव्यं न तु ब्रह्मज्ञाने यत्नः ज्ञानके लिये प्रयत्न कर्तव्य नहीं है, क्योंकि ब्रह्म तो अत्यन्तप्रसिद्धत्वात् । अत्यन्त प्रसिद्ध हो है। अविद्याकल्पितनामरूपविशेषाकारापहृत- ब्रह्म यद्यपि अत्यन्त प्रसिद्ध, सुविज्ञेय, अति समीप बुद्धित्वाद् अत्यन्तप्रसिद्धं सुविज्ञेयम् आसन्नतरम् और आत्मखरूप है तो भी वह विवेकरहित मनुष्योंको, अविद्याकल्पित नामरूपके भेदसे उनकी आत्मभूतम् अपि अप्रसिद्धं दुर्विज्ञेयम् अतिदूरम् बुद्धि भ्रमित हो जाने के कारण, अप्रसिद्ध, दुर्विज्ञेय, अन्यद् इव च प्रतिभाति अविवेकिनाम् । अति दूर और दूसरा-सा प्रतीत हो रहा है। बाह्याकारनिवृत्तबुद्धीनां तु लब्धगुर्वात्म- परन्तु जिनकी बाह्याकार बुद्धि निवृत्त हो गयी है, जिन्होंने गुरु और आत्माकी कृपा लाभ कर ली प्रसादानां न अतः परं सुखं सुप्रसिद्धं सुविज्ञेयं है, उनके लिये इससे अधिक सुप्रसिद्ध, सुविज्ञेय, माणत्वात् ।