पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४५०

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श्रीमद्भगवद्गीता खासन्नम् अस्ति । तथा च उक्तम् 'प्रत्यक्षावगमं सुखस्वरूप और अपने समीप कुछ भी नहीं है । 'प्रत्यक्ष-उपलब्ध धर्ममय' इत्यादि वाक्योंसे भी धर्म्यम् इत्यादि। यही बात कही गयी है। केचित् तु पण्डितंमन्या निराकारत्वाद् कितने ही अपनेको पण्डित माननेवाले यो | कहते हैं, कि आत्मतत्त्व निराकार होने के कारण आत्मवस्तु न उपैति बुद्धिः अतो दुःसाध्या उसको बुद्धि नहीं पा सकती, अतः सम्यक् ज्ञान- सम्यग्ज्ञाननिष्ठा इति आहुः। निष्ठा दुःसाध्य है। सत्यम् एवम् गुरुसंप्रदायरहितानाम् अश्रुत- ठीक है, जो गुरु-परम्परासे रहित हैं, जिन्होंने वेदान्त-वाक्योंको (विधिपूर्वक) नहीं सुना है, जिनकी वेदान्तानाम् .. अत्यन्तवहिविषयासक्तबुद्धीनां बुद्धि सांसारिक विषयोंमें अत्यन्त आसक्त हो रही है, जिन्होंने यथार्थ ज्ञान करानेवाले प्रमाणोंमें परिश्रम सम्यक्प्रमाणेषु अकृतश्रमाणाम् , तद्विपरीतानां नहीं किया है, उनके लिये यही बात है । परन्तु जो तु लौकिकग्राह्यग्राहकद्वैतवस्तुनि सद्बुद्धिः उनसे विपरीत हैं, उनके लिये तो, लौकिक ग्राह्य-ग्राहक | भेदयुक्त वस्तुओंमें सद्भाव सम्पादन करना ( इनको नितरां दुःसंपाद्या आत्मचैतन्यव्यतिरेकेण | सत्य समझना ) अत्यन्त कठिन है, क्योंकि उनको आत्मचैतन्यसे अतिरिक्त दूसरी वस्तुकी उपलब्धि ही वस्त्वन्तरस्य अनुपलब्धेः। नहीं होती। यथा च एतद् एवम् एव न अन्यथा इति यह ठीक इसी तरह है, अन्यथा नहीं है। यह अबोचाम । उक्तं च भगवता–'यस्यां जाग्रति बात हम पहले सिद्ध कर आये हैं और भगवान्ने भी कहा है कि 'जिसमें सब प्राणी जागते हैं, भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः' इति । ज्ञानी मुनिकी वही रात्रि है' इत्यादि । तसाद् बाह्याकारभेदबुद्धिनिवृत्तिः एव सुतरां आत्मस्वरूपके अबलम्बनमें, आत्मस्वरूपालम्बने कारणम् । न हि आत्मा नानाकार भेद-बुद्धिकी निवृत्ति ही कारण है। क्योंकि आत्मा कभी किसीके भी लिये अप्रसिद्ध, नाम कस्यचित् कदाचिद् अप्रसिद्धः पाप्यो प्राप्तव्य, त्याज्य या उपादेय नहीं हो सकता। हेय उपादेयो वा। आत्माको अप्रसिद्ध मान लेनेपर तो सभी अप्रसिद्ध हि तस्मिन् आत्मनि अस्वार्थाः प्रवृत्तियोंको निरर्थक मानना सिद्ध होगा। इसके सर्वाः प्रवृत्तयः प्रसज्येरन् । न च देहायचेत- | सिवा न तो यह कल्पना की जा सकती है कि नार्थत्वं शक्यं कल्पयितुम् । न च सुखार्थ अचेतन शरीरादिके लिये (सबकर्म किये जाते हैं)और न यही कि सुखके लिये सुख है या दुःखके लिये दुःख सुखं दुःखार्थ वा दुःखम् आत्मावगत्यवसा- है। क्योंकि सारे व्यवहारका प्रयोजन अन्तमें नार्थत्वात् च सर्वव्यवहारस्य । आत्माके ज्ञानका विषय बन जाना है । इसलिये, जैसे अपने शरीरको जाननेके लिये तस्माद् यथा खदेहस्य परिच्छेदाय न । अन्य प्रमाणको अपेक्षा नहीं है; वैसे ही आत्मा प्रमाणान्तरापेक्षा ततः अपि आत्मनः अन्तर- उससे भी अधिक अन्तरतम होनेके कारण बाह्य