पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४५२

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श्रीमद्भगवद्गीता अधिकान् सुखार्थान् त्यक्त्वा इत्यर्थः । शरीर- | है, उनसे अतिरिक्त सुखभोगके लिये जो अधिक स्थित्यर्थत्वेन प्राप्तेषु च रागद्वेषौ व्युदस्य च विषय हैं, उन सबको छोड़कर, तथा शरीरस्थितिके निमित्त प्राप्त हुए विषयोंमें भी, राग-द्वेषका अभाव परित्यज्य ॥५१॥ करके त्याग करके ॥५१॥ तत:- ! उसके बाद- विविक्तसेवी लध्वाशी यतवाकायमानसः। ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥ ५२ ॥ विविक्तसेवी अरण्यनदीपुलिनगिरिगुहादीन् | विविक्त देशका सेवन करनेवाला अर्थात् वन, विविक्तान् देशान् सेवितुं शीलम् अस्य इति नदी-तीर, पहाडकी गुफा आदि एकान्त देशका सेवन करना ही जिसका रूभाव है ऐसा, और विविक्तसेवी । लध्वाशी लध्वशनशीलः । हलका आहार करनेवाला होकर, 'एकान्त-सेवन' और 'हलका भोजन' यह दोनों निद्रादि दोषोंके विविक्तसेवालम्बशनयोः निद्रादिदोषनिवर्त- निवर्तक होनेसे चित्तकी स्वच्छतामें हेतु हैं, इसलिये कत्वेन चित्तप्रसादहेतुत्वाद् ग्रहणम् । इनका ग्रहण किया गया है। यतवाक्कायमानसो वाक् च कायः च मानस तथा मन, वाणी और शरीरको वशमें करनेवाला होकर, अर्थात् जिस ज्ञाननिष्ठ यतिके काया, मन और च यतानि संयतानि यस्य ज्ञाननिष्ठस्य स वाणी तीनों जीते हुए होते हैं वह 'यतवाकायमानस' ज्ञाननिष्ठो यतिः यतवाकायमानस: स्यात् । होता है-इस प्रकार सब इन्द्रियोंको कोसे उपराम एवम् उपरतसर्वकरणः सन् , | करके, ध्यानयोगपरो ध्यानम् आत्मस्वरूपचिन्तनं तथा नित्य ध्यानयोगके परायण रहता हुआ, योग आत्मविषये एव एकाग्रीकरणं तो चित्तको एकाग्र करनेका नाम योग है, यह दोनों आत्मस्वरूप चिन्तनका नाम ध्यान है और आत्मामें ध्यानयोगौ परत्वेन कर्तव्यौ यस्य स ध्यान- | प्रधानरूपसे जिसके कर्तव्य हों, उसका नाम ध्यानयोगपरायण है, उसके साथ नित्य पदका योगपरः। नित्यं नित्यग्रहणं मन्त्रजपाद्यन्य- ग्रहण मन्त्र-जप आदि अन्य कर्तव्योंका अभाव कर्तव्याभावप्रदर्शनार्थम् । दिखाने के लिये किया गया है। वैराग्यं विरागभावो दृष्टादृष्टेषु विषयेषु तथा इस लोक और परलोकके भोगोंमें तृष्णाका वैतृष्ण्यं समुपाश्रितः सम्यग् उपाश्रितो नित्यम् अभावरूप जो वैराग्य है, उसके आश्रित होकर एव इत्यर्थः ।। ५२॥ | अर्थात् सदा वैराग्यसम्पन्न होकर ।। ५२ ॥ तथा-- अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५३ ॥