पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४५३

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Hemanthamamaee -4 शांकरभाष्य अध्याय १८ अहंकारम् अहंकरणम् अइंकारो देहेन्द्रियादिषु अहंकार, और इपको छोड़कर-शरीर- इन्द्रियादिने अहंभाव करने का नाम 'अहंकार है। तम्, बलं सामर्थ्य कामरागादियुक्तं न कामना और आसक्तिसे बुन्त जो सामध्य है उनका इतरत् शरीरादिसामध्यं स्वाभाविकत्वेन नाम 'बन्द' है, यहाँ शरीरादिका माधान सानयका नाम बल नहीं है, क्योंकि वह स्वाभाविक है त्यागस्य अशक्यत्वात् । दो नाम हर्षानन्तर- इसलिये उसका त्याग अशक्य है, हरके लाथ होनेवाला और धर्म-उल्लङ्घनका कारण जो गर्व है भावी धर्मातिक्रमहेतुः 'हृष्टो हप्यति तो उसका नाम दर्ष है, क्योंकि स्मृति में कहा है कि 'हर्षयुक्त पुरुष दर्प करता है, दर्प करनेवाला धर्ममतिकामति' इति सरणात् तं च । धर्मका उल्लङ्घन किया करता है इत्यादि । कामम् इच्छां क्रोधं द्वेष परिग्रहम् इन्द्रियमनो- तथा इच्छाका नाम काम है, द्वेषका नाम क्रोध है, इनका और परिप्रहला भी त्याग करके अर्थात् इन्द्रिय गतदोषपरित्यागे अपि शरीरधारणप्रसङ्गेन और मनमें रहनेवाले दोषोंका त्याग करने के पश्चात् धर्मानुष्ठाननिमित्तेन वा बाह्यः परिग्रहः प्राप्तः भी, झारीर-धारणके प्रसंगले या धर्मानुष्ठानके निमित्तसे, जो बाल संग्रहकी प्राप्ति होती है उसका तं च विमुच्य परित्यज्य, भी परित्याग करके, परमहंसपरिव्राजको भूत्वा, देहजीवनमात्रे तथा परमहंस परिव्राजक (संन्यासी) होकर, अपि निर्गतममभावो निर्ममः अत एव शान्त एवं देहजीवनमात्रमें भी ममतारहित और इसीलिये जो उपरतः । यः संहतायासो यतिः ज्ञाननिष्ठो शान्त---उपरतियुक्त है, ऐसा जो सब परिश्रमोंसे ब्रह्मभूयाय बलभवनाय कल्पते समर्थो रहित ज्ञाननिष्ठ यति है, यह ब्रह्मरूप होने के भवति ॥ ५३॥ योग्य होता है ।। ५३ ॥ इस क्रमसे- अनेन क्रमण- ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्गति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥ ५४ ॥ ब्रह्मभूतो ब्रह्मप्राप्तः प्रसन्नात्मा लब्धाध्यात्म- ब्रह्मको प्राप्त हुआ, प्रसन्नात्मा अर्थात् जिसको अध्यात्मप्रसाद लाभ हो चुका है ऐसा पुरुष, न प्रसादो न शोचति किंचिद् अर्थवैकल्यम् शोक करता है और न आकांक्षा ही करता है। अर्थात् न तो किसी पदार्थकी हानिके, या निज- आत्मनो वैगुण्यं च उद्दिश्य न शोचति न सम्बन्धी विगुणताके उद्देश्य से संताप करता है संतप्यते न कायति । और न किसी वस्तुको बाहता ही है ब्रह्मभूतस्य अयं स्वभावः अनूयते न न शोचति न काङ्क्षति' इस कथनसे ब्रह्मभूत शोचति न काङ्क्षति इति । पुरुषके स्वभावका अनुवादमात्र किया गया है।