पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४५४

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श्रीमद्भगवद्गीता हि अप्राप्तविषयाकाङ्क्षा ब्रह्मविद् क्योंकि ब्रह्मवेत्तामें अप्राप्त विषयोंकी आकांक्षा बन ही नहीं सकती। अथवा 'न काङ्गति' की जगह उपपद्यते । न हृष्यति इति वा याठः । 'न हृष्यति' ऐसा पाठ समझना चाहिये । समः सर्वेषु भूतेषु आत्मौपम्येन सर्वेषु भूतेषु | तथा जो सब भूतोंमें सम है, अर्थात् अपने सुखं दुःखं वा समम् एव पश्यति इत्यर्थो न सदृश सब भूतोंमें सुख और दुःखको जो समान देखता है। इस वाक्यमें आत्माको समभावसे देखना आत्मसमदर्शनम् इह तस्य वक्ष्यमाणत्वात् नहीं कहा है, क्योंकि वह तो भक्त्या मासभि- 'भक्त्या मामभिजानाति' इति । जानाति' इस पदसे आगे कहा जायगा । एवंभूतो ज्ञाननिष्ठो मद्भक्तिं मयि परमेश्वरे ऐसा ज्ञाननिष्ठ पुरुष, मुझ परमेश्वरकी भजनरूप पराभक्तिको पाता है, अर्थात् 'चतुर्विधा भक्ति भजनं पराम् उत्तम ज्ञानलक्षणां चतुर्थी भजन्ते माम्' इसमें जो चतुर्थ भक्ति कही गयी है लभते 'चतुर्विधा भजन्ते माम्' इति उक्तम् ॥५४॥। उसको पाता है ॥ ५४ ।। ततो ज्ञानलक्षणया- उसके बाद उस ज्ञानलक्षणा- भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्वास्मि तत्त्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ ५५ भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् अहम् उपाधि-| भक्तिसे, मैं जितना हूँ और जो हूँ, उसको तत्त्वसे जान लेता है। अभिप्राय यह है कि मैं जितना कृतविस्तरभेदो यः च अहं विध्वस्तसर्वो- |हूँ, यानी उपाधिकृत विस्तारभेदसे जितना हूँ और पाधिभेद उत्तमपुरुष आकाशकल्पः तं माम् | जो हूँ, यानी वास्तवमें समस्त उपाधिभेदसे रहित, अद्वैतं चैतन्यमात्रैकरसम् अजम् अजरम् अमरम् मैं हूँ, उस अद्वैत, अजर, अमर, अभय और | उत्तम पुरुष और आकाशकी तरह ( व्याप्त ) जो अभयम् अनिधनं तत्त्वतः अभिजानाति । निधनरहित मुझको तत्त्वसे जान लेता है। ततो माम् एवं तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरं फिर मुझे इस तरह तत्त्वसे जानकर तत्काल मुझमें ही प्रवेश कर जाता है। न अत्र ज्ञानानन्तरप्रवेशक्रिये भिन्ने यहाँ 'ज्ञात्वा' 'विशते तदनन्तरम्' इस कथनसे विवक्षिते ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् इति, किं ज्ञान और उसके अनन्तर प्रवेशक्रिया, यह दोनों भिन्न- भिन्न विवक्षित नहीं हैं । तो क्या है ? फलान्तरके तर्हि, फलान्तराभावज्ञानमात्रम् एव, 'क्षेत्रज्ञं | अभावका ज्ञानमात्र ही विवक्षित है । क्योंकि चापि मां विद्धि' इति उक्तत्वात् 'क्षेत्रज्ञ भी तू मुझे ही समझ' ऐसे कहा गया है । ननु विरुद्धम् इदम् उक्तं ज्ञानस्य या परा पू०-यह कहना विरुद्ध है कि ज्ञानकी जो निष्ठा तया माम् अभिजानाति इति । कथं परा निष्टा है उससे मुझे जानता है। यदि कहो विरुद्धम् इति चेद् उच्यते, यदा एव यसिन् कि विरुद्ध कैसे है तो बतलाते हैं, जब ज्ञाताको माम् एव । ।