पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४५५

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शांकरभाष्य अध्याय १८ विषये ज्ञानम् उत्पद्यते ज्ञातुः तदा एव तं विषयम् । जिरू विश्यका ज्ञान होता है, वह उसी समय उस अभिजानाति ज्ञाता इति न ज्ञाननिष्ठां ज्ञाना- दिययको जान लेता है, ज्ञानकी वारंवार आवृत्ति बृत्तिलक्षणाम् अपेक्षते इति । ततः च ज्ञानेन करनारूप ज्ञाननिष्ठाको अपेक्षा नहीं करता । न अभिजानाति ज्ञानावृत्त्या तु ज्ञाननिष्ठया इसलिये यह ! झेय पदार्थको ज्ञानसे नहीं जानता, अभिजानाति इति । ज्ञानावृन्तिरूप ज्ञाननिटाले जानता है। यह कहना विरुद्ध है। न एष दोषो ज्ञानस्य स्वात्मोत्पत्तिपरिपाक- उ-यह दोष नहीं है. क्योंकि अपनी उत्पत्ति और परिपाकक हेतुओंसे युक्त, एवं निवरहित हेतुयुक्तस्य प्रतिपक्षविहीनस्य यद् आत्मानुभव- ज्ञानका, जो अपने स्वरूपानुभव, निश्चयरूपसे निश्चयावसानत्वं तस्य निष्ठाशब्दाभिलापान् । पर्यवसान-स्थित हो जाना है, उसीको निष्ठा शब्दसे कहा गया है। शास्त्राचार्योपदेशेन ज्ञानोत्पत्तिपरिपाकहेतुं अभिप्राय यह, कि ज्ञानको उत्पत्ति और परिपाकके सहकारिकारणं बुद्धिविशुद्धयादि अमानित्वादि हेतु, जो विशुद्ध-बुद्धि आदि और अमानित्वादि च अपेक्ष्य जनितस्य क्षेत्रापरमात्मैकत्व- आचार्यक उपदेशसे उत्पन्न हुआ, जो मैं कर्ता हूँ, सहकारी कारण हैं. उनकी सहायतासे, शास्त्र और ज्ञानस्य कादिकारकभेदबुद्धिनिबन्धन- मेरा यह कर्म है इत्यादि कारकभेदबुद्धि जनित सर्वकर्मसंन्याससहितस्थ स्वात्मानुभवनिश्चय- समस्त कोंके संन्याससहित क्षेत्रज्ञ और ईश्वरकी रूपेण यद् अवस्थान सा परा ज्ञाननिष्ठा एकताका ज्ञान है, उसका जो अपने स्वरूपके इति उच्यते । अनुभव में निश्चयरूपसे स्थित रहना है, उसे 'परा ज्ञान-निष्टा' कहते हैं। सा इयं ज्ञाननिष्ठा आतादिभक्तित्रयापेक्षया वही यह ज्ञाननिष्टा 'आत' आदि तीन भक्तियों परा चतुर्थी भक्तिः इति उक्ता । तया परया अपेक्षासे चतुर्थ परा भक्ति कही गयी है । उस (ज्ञान- निष्टाख्य) परा भक्तिसे भगवान्को तत्व से जानता भक्त्या भगवन्तं तत्त्वतः अभिजानाति । है, जिससे उसी समय ईश्वर और क्षेत्रज्ञविषयक यदनन्तरम् एव ईश्वरक्षेत्रज्ञभेदबुद्धिः अशेषतो भेदबुद्धि पूर्णरूपसे निवृत्त हो जाती है । इसलिये निवर्तते । अतो ज्ञाननिष्ठालक्षणया भक्त्या ज्ञाननिष्ठारूप भक्ति से मुझे जानता है यह कहना माम् अभिजानाति इति वचनं न विरुध्यते । विरुद्ध नहीं होता। अत्र च सर्व निवृत्तिविधायि शास्खं वेदान्ते- ऐसा मान लेनमें वेदान्त, इतिहास, पुराण और स्मृतिरूप समस्त निवृत्तिविधायक शास्त्र, सार्थक हो तिहासपुराणस्मृतिलक्षणम् अर्थवद् भवति । जाते हैं अर्थात् उन सबका अभिप्राय सिद्ध हो जाता है। 'विदित्वा व्युत्थायाथ भिक्षाचयं चरन्ति (बृ०३० "आत्माको जानकर(तीनों तरहकी एपणाओंसे) .: विरक्त होकर फिर भिक्षाचरण करते हैं, ३१५1१) तस्मान्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमा 'पुरुषार्थका अन्तरंग साधन होनेके कारण संन्यास ही इन सब तपोमै अधिक कहा गया है', (ना० उ०२।७९) 'न्यास एवात्यरेचयत् (ना. 'अकेला संभ्यास ही उन सक्को उल्लंघन कर उ०२।७८) इति संन्यासः कर्मणां न्यासो जाता है', 'कमोंके त्यागका नाम. संन्यास है'