पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४५६

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श्रीमद्भगवद्गीता 'वेदानिमं च लोकममुं च परित्यज्य' ( आप० ध० 'वेदोंको तथा इस लोक और परलोकको परित्याग १। २३ । १३ ) त्यज धर्ममधर्म च' (महा० करके' 'धर्म-अधर्मको छोड़' इत्यादि शास्त्रवाक्य शां० ३२९ । ४०) इत्यादि । इह च दर्शितानि | हैं । तथा यहाँ भी (संन्यासपरक) बहुत-से वचन वाक्यानि । दिखाये गये हैं। न च तेषां वाक्यानाम् आनर्थक्यं युक्तम् । उन सब वचनोंको व्यर्थ मानना उचित नहीं और अर्थवादरूप मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि न च अर्थवादत्वं स्वप्रकरणस्थत्वात् । वे अपने प्रकरणमें स्थित हैं। प्रत्यगात्माविक्रियस्वरूपनिष्ठत्वात् इसके सिवा अन्तरात्माके अविक्रियस्वरूपमें निश्चयरूपसे स्थित हो जाना ही मोक्ष है । मोक्षस्य । न हि पूर्वसमुद्रं जिगमिषोः प्राति- इसलिये भी (पूर्वोक्त बात ही सिद्ध होती है ) । लोम्येन प्रत्यक्समुद्रं जिगमिषुणा समान- क्योंकि पूर्वसमुद्रपर जानेकी इच्छावालेका उसके | प्रतिकूल पश्चिमसमुद्रपर जानेकी इच्छावाले के साथ, मार्गत्वं संभवति । समान मार्ग नहीं हो सकता। प्रत्यगात्मविषयप्रत्ययसंतानकरणाभिनिवेशः अन्तरात्मविषयक प्रतीतिकी निरन्तरता रखनेके आग्रहका नाम 'ज्ञाननिष्ठा' है । उसका कर्मोंके च ज्ञाननिष्ठा । सा च प्रत्यक्समुद्रगमनवत् साथ रहना (पूर्वकी ओर जानेकी इच्छावाले के लिये) कर्मणा सहभावित्वेन विरुध्यते । पश्चिमसमुद्रकी ओर जानेके मार्गकी भाँति, विरुद्ध है। पर्वतसर्षपयोः इव अन्तरवान् विरोधः प्रमाणवेत्ताओंने उनका पर्वत और राईके समान प्रमाणविदां निश्चितः । तस्मात् सर्वकर्मसंन्या- भेद निश्चित किया है । सुतरां यह सिद्ध हुआ कि सेन एव ज्ञाननिष्ठा कार्या इति सिद्धम् ॥५५॥ सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक ही ज्ञाननिष्ठा करनी चाहिये। वकर्मणा भगवतः अभ्यर्चनभक्तियोगस्य अपने कर्मोद्वारा भगवान्की पूजा करनारूप भक्ति-योगकी सिद्धि, अर्थात् फल, ज्ञाननिष्ठाकी सिद्धिप्राप्तिः फलं ज्ञाननिष्ठायोग्यता । यनि- योग्यता है । जिस (भक्ति-योग) से होनेवाली ज्ञान- मित्ता ज्ञाननिष्ठा मोक्षफलावसाना स | निष्ठा, अन्तमें मोक्षरूप फल देनेवाली होती है, उस | भगवद्भक्ति-योगकी अब शास्त्राभिप्रायके उपसंहार- भगवद्भक्तियोगः अधुना स्तूयते शास्त्रार्थोप- | प्रकरणमें, शास्त्र-अभिप्रायके निश्चयको दृढ़ करनेके संहारप्रकरणे शास्त्रार्थनिश्चयदाक्य- लिये, स्तुति की जाती है---- सर्वकर्माप्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रयः । मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ ५६ ॥ सर्वकर्माणि प्रतिषिद्धानि अपि सदा कुर्वाणः सदा सब कर्मों को करनेवालाअर्थात् निषिद्ध कर्मों- अनुतिष्ठन् मद्यपाश्रयः अहं वासुदेव ईश्वरो को भी करनेवाला जो मद्वयपाश्रय भक्त है-जिसका