पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४५७

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शांकरभाष्य अध्याय १८ व्यपाश्रयो यस्य स मद्यपाश्रयो भय्यर्पित- मैं वासुदेव ही पूर्ण आश्रय हैं. ऐसा मुझे ही अपना सर्वात्मभाव इत्यर्थः । स अपि मत्प्रसादाद सब कुछ अर्पण कर देनेवाला जो भल है, वह भी मम ईश्वरस्य प्रसादाद् अवाप्नोति शाश्वतं नित्यं मुझ ईश्वरके अनुग्रहसे. बिशुकशाश्वत-निय- वैष्णवं पदम् अव्ययम् ॥५६॥ अविनाशी पदको प्राप्त कर लेता है !!! यस्माद् एवं तस्मात्- अत्र कि यह बात है इसलिये- चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः । बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।। ५७ ॥ चेतसा विवेकबुद्धया सर्वकर्माणि दृष्टादृष्टार्थानि : तु दृष्ट और अदृष्ट फलबाले समस्त कर्मीको मयि ईश्वरे संन्यस्य यत्करोषि यदश्नासि' विवेक बुद्धिसे अर्थात् 'यत्करोषि यदश्नासि' इस इति उक्तन्यायेन मत्परः अहं वासुदेवः परो इलोकमें बतलाये हुए भावसे, मुझ ईश्वरमें समर्पण यस्य तव स त्वं मत्परः सन् बुद्धियोगं मयि करके, तथा मेरे परायण होकर, अर्थात् मैं वासुदेव ही जिसका पर (परमगति ) हूँ, ऐसा होकर, मुझमें समाहितबुद्धित्वं बुद्धियोगः तं बुद्धियोगम् बुद्धिको स्थिर करनारूप बुद्धि-योगका आश्रय उपाश्रित्य आश्रयः अनन्यशरणत्वं मञ्चित्तो मयि लेकर-बुद्धियोगके अनन्यशरण होकर, एव चित्तं यस्य तब स त्वं मञ्चित्तः सततं मुझमें चित्तबाला हो, अर्थात् जिसका निरन्तर मुझमें सर्वदा भव ॥ ५७ ॥ ही चित्त रहे, ऐसा हो ।। ५७ ॥ मचित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि । अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनक्ष्यसि ॥ ५८ ॥ मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि सर्वाणि दुस्तराणि संसार- मुझमें चित्तवाला होकर तू सपन्त कठिनाइयों- को अर्थात् जन्म-मरणरूप संसारके समस्त कारणों- हेतुजातानि मत्प्रसादात् तरिष्यसि अतिक्रमिष्यसि । को, मेरे अनुग्रहसे तर जायगा-सबसे पार हो अथ चेद् ' यदि त्वं मदुक्तम् अहंकारात् पण्डितः जायगा । परन्तु यदि तू मेरे कहे हुए वचनोंको अहंकारसे 'मैं पण्डित हूँ ऐसा समझकर, नहीं अहम् इति न श्रोष्यसि न ग्रहीष्यसि ततः त्वं सुनेगा,- -ग्रहण नहीं करेगा, तो नष्ट हो जायगा- विनक्ष्यसि विनाशं गमिष्यसि ॥ ५८ ॥ नाशको प्राप्त हो जायगा ।। ५८ ।। इदं च त्वया न मन्तव्यं स्वतन्त्रः अहं किमर्थं परोक्तं करिष्यामि इति- तुझे यह भी नहीं समझना चाहिये, कि मैं स्वतन्त्र हूँ, दूसरेका कहना क्यों करूँ ?--