पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीमद्भगवद्गीता शाश्वत इति अपक्षयलक्षणा चिक्रिया प्रति- सदा रहनेवालेका नाम शाश्वत है, 'शाश्वत' शब्दसे अपक्षय (क्षय होना) रूप विकारका विध्यते शश्वद्भवः शावतः। न अपक्षीयते प्रतिषेध किया जाता है क्योंकि आत्मा अवयवरहित स्वरूपेण निरवथवत्वात् निर्गुणत्वात् च न है, इस कारण स्वरूपसे उसका क्षय नहीं होता और निर्गुण होनेके कारण गुणोंके क्षयसे भी अपि गुणक्षयेण अपक्षयः । उसका क्षय नहीं होता। अपक्षयविपरीता अपि वृद्धिलक्षणा विक्रिया 'पुराण' इस शब्दसे, अपक्षयके विपरीत जो प्रतिषिध्यते पुराण इति । यो हि अवयवागमेन वृद्धिरूप विकार है उसका भी प्रतिषेध किया जाता उपचीयते स वर्धते अभिनव इति च उच्यते । है वह 'बढ़ता है 'नया हुआ है' ऐसे कहा जाता है, । जो पदार्थ किसी अवयवकी उत्पत्तिसे पुष्ट होता अयं तु आत्मा निरवयवत्वात् पुरा अपि नव एवं परन्तु यह आत्मा तो अवयवरहित होनेके कारण पहले इति पुराणो न वर्धते इत्यर्थः। | भी नया था, अतः 'पुराण' है अर्थात् बढ़ता नहीं । तथा न हन्यते न विपरिणम्यते हन्यमाने तथा, शरीरका नाश होनेपर यानी विपरीत परिणामको प्राप्त हो जानेपर भी आत्मा नष्ट नहीं होता विपरिणम्यमाने अपि शरीरे । अर्थात् दुर्बलतादि बुरी अवस्थाको प्राप्त नहीं होता। हन्तिः अत्र विपरिणामार्थो द्रष्टव्यः अपुन- यहाँ हन्ति क्रियाका अर्थ पुनरुक्तिदोषसे बचमेके लिये विपरीत परिणाम समझना चाहिये, इसलिये यह रुक्ततायै न विपरिणम्यते इत्यर्थः । अर्थ हुआ कि आत्मा अपने स्वरूपसे बदलता नहीं । अस्मिन् मन्त्रे षड्भावविकारा लौकिक- इस मन्त्रमें लौकिक वस्तुओंमें होनेवाले छः वस्तुविक्रिया आत्मनि प्रतिषिध्यन्ते । सर्व- भावविकारोंका आत्मामें अभाव दिखलाया जाता है । आत्मा सब प्रकारके विकारोंसे रहित है, यह प्रकारविक्रियारहित आत्मा इति वाक्यार्थः। इस श्लोकका वाक्यार्थ है। यसात् एवं तस्मात् उभौ तौ न विजानीत ऐसा होनेके कारण वे दोनों ही (आत्मस्वरूपको) नहीं जानते । इस प्रकार पूर्व मन्त्रसे इसका इति पूर्वेण मन्त्रेण अस्य संबन्धः ॥२०॥ सम्बन्ध है ॥२०॥ 'य एनं वेत्ति हन्तारम्' इति अनेन मन्त्रण 'य एनं वेत्ति हन्तारम्'-इस मन्त्रसे 'आत्मा हननक्रियाका कर्ता और कर्म नहीं है। यह प्रतिज्ञा हननक्रियायाः कर्ता कर्म च न भवति इति करके, तथा 'न जायते' इस मन्त्रसे आत्माकी प्रतिज्ञाय न जायते' इति अनेन अविक्रियत्वे निर्विकारताके हेतुको बतलाकर, अब प्रतिज्ञा हेतुम् उक्त्वा प्रतिज्ञातार्थम् उपसंहरति- किये हुए अर्थका उपसंहार करते हैं--- वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥