पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४७

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शांकरभाष्य अध्याय २ ३३ वेद विजानाति अविनाशिनम् अन्त्यभाव- पूर्व मन्त्रमें कहे हुए लक्षणों से युक्त इस आत्मा- विकाररहितं नित्यं विपरिणामरहितं यो वेद को जो अविनाशी-अन्तिम भाव-विकाररूप मरण- इति संबन्धः एनं पूर्वेण मन्त्रेण उक्तलक्षणम् आदि विकारोंसे रहित, अज-जन्मरहित और से रहित, नित्य-रोगादिजनित दुर्बलता, क्षीणता अजं जन्मरहितम् अव्ययम् अपक्षयरहितम् । अव्यय-अपक्षयरूप विकारसे रहित जानता है। कथं केन प्रकारेण स विद्वान् पुरुषः वह आत्मतत्वका ज्ञाता-अधिकारी पुरुष कैसे अधिकृतो हन्ति हननक्रियां करोति । कथं वा है? अर्थात् वह कैसे तो हननरूप क्रिया कर सकता है (किसको) मारता है और कैसे (किसको) मरवाता घातयति हन्तारं प्रयोजयति । और कैसे किसी मारनेवालेको नियुक्त कर सकता है ? न कथंचित् कंचित् हन्ति न कथंचित् कंचित अभिप्राय यह कि वह न किसीको किसी प्रकार भी मारता है और न किसीको किसी प्रकार भी घातयति इति । उभयत्र आक्षेप एव अर्थः मरवाता है। इन दोनों बातोंमें 'किम् और 'कथम्' प्रश्नार्थासंभवात् । शब्द आक्षेपके बोधक हैं, क्योंकि प्रश्नके अर्थ में यहाँ : इनका प्रयोग सम्भव नहीं। * हेत्वर्थस्य अविक्रियत्वस्य तुल्यत्वात् विदुषः निर्विकारतारूप हेतुका तात्पर्य सभी कर्मोका प्रतिषेध करनेमें समान है, इससे इस प्रकरणका अर्थ सर्वकर्मप्रतिषेध एव प्रकरणार्थः अभिप्रेतो भगवान्को यही इष्ट है कि आत्मवेत्ता किसी भी भगवतः। कर्मका करने-करवानेवाला नहीं होता। हन्ते तु आक्षेप उदाहरणार्थत्वेन । अकेली हननक्रियाके विषय में आक्षेप करना उदाहरणके रूपमें है। विदुषः कं कर्मासंभवे हेतुविशेष पश्यन् पू०-कर्म न हो सकनेमें कौन-से खास हेतुको देखकर ज्ञानीके लिये भगवान् 'कथं स पुरुषः' इस कर्माणि आक्षिपति भगवान् ‘कथं स पुरुषः' इति । | कथनसे कर्मविषयक आक्षेप करते हैं ? ननु उक्त एवं आत्मनः अविक्रियत्वं 'o-पहले ही कह आये हैं कि आत्माकी निर्विकारता ही ( ज्ञानी-कर्तृक ) सम्पूर्ण कोंके न सर्वकर्मासंभवकारणविशेषः। होनेका खास हेतु है। सत्यम् उक्तो न तु सः कारणविशेषः, पू०-कहा है सही, परन्तु अविक्रिय आत्मासे उसको अन्यत्वात् विदुषः अविक्रियात् आत्मन इति, जाननेवाला भिन्न है, इसलिये ( वह ऊपर बतलाया नहि अविक्रियं स्थाणु विदितवतः कर्म न हुआ) खास कारण उपयुक्त नहीं है। क्योंकि स्थाणुको संभवति इति चेत् । अविक्रिय जाननेवालेसे कर्म नहीं होते, ऐसा नहीं ।

  • अर्थात् आत्मा किसीको किसी प्रकार भी मारने या मरवानेवाला नहीं हो सकता-यह बतलानेके लिये

ही यहाँ 'किम्' और 'कथम्' शब्द है, प्रश्न के उद्देश्यसे नहीं। + अर्थात् ज्ञानी केवल हननक्रियाका ही कर्ता और कर्म नहीं हो सकता, इतना ही नहीं, आत्मा निर्विकार और नित्य होनेके कारण वह किसी भी क्रियाका कर्ता और कर्म नहीं हो सकता। यहाँ जो केवल हननक्रियाका ही प्रतिषेध किया गया है, उसे उदाहरणके रूपमें समझना चाहिये ।