पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४६३

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शांकरभाष्य अध्याय १८ प्रकाशफलवन विनिवृत्तसपविकल्पराजु-विकलको वानर, कल एजुको प्रत्यक्ष कराके, सुना हो जाता है, कोबी अविचारूप अन्धकारके कैवल्यावसानं हि प्रकाशफलं तथा ज्ञानम् । नाशक आलझानका भी कल केवा आत्मस्वरूपको प्रत्यक्ष कराक ही समाह होता देखा गया है। दृष्टार्थानां च छिदिक्रियामिभन्धनादीनां जिनका मल प्रत्यार है, ऐसी जो कड़ीको चरिना व्यापृतकादिकारकाणां वैधीभावाग्निद अथवा अरगोनयनद्वारा अनि उत्पन्न करना आदि नादिफलाद् अन्यफले कर्मान्तरे व्यापारानु- क्रियाएँ हैं, उनमें लगे हुए कली आदि कारकों की, जैसे पपत्तिः यथा ज्ञाननिष्ठक्रियायां अलग-अलग इकड़े हो जाना. अथवा अग्नि प्रज्वलित हो जाना, आदि कटले अतिरिक्त किसी अन्य फल दृष्टार्थायां व्यापृतस्य ज्ञानादिकारकस्य देनवाले कर्मन प्रवृत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही जिसका आत्मकैवल्यफलाद् अन्य फले कर्मान्तरे फर प्रत्यक्ष है, ऐसी ज्ञाननिष्टारूप क्रियामें लगे हुए, प्रवृत्तिः अनुपपन्ना इति न ज्ञाननिष्ठा ज्ञानारूप कारककी भी आमझैवल्य से अतिरिक्त फल- वाले किसी अन्य कर्ममें, प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अतः कर्मसहिता उपपद्यते । ज्ञाननिष्ठा कर्म सहित नहीं हो सकती। भुज्यग्निहोत्रादिनियावन् स्याद् इति चेत् । यदि कहो कि भोजन और अग्निहोत्र आदि क्रियाओं के समान (इसमें भी समुच्चय ) हो सकता है न, कैवल्यफले ज्ञाने क्रियाकलार्थित्वानु- तो ऐसा कहना ठीक नहीं; क्योंकि जिसका फल पपत्तेः । कैवल्यफले हि ज्ञाने प्राप्ते सर्वतः- कैवल्य ( मोक्ष ) है, उस ज्ञान के प्राप्त होनेके पश्चात् कर्म-फलकी इच्छा नहीं रह सकती, अर्थात् सर्वतः- संप्लुतोदके फले कूपतडागादिक्रियाकलार्थि- संप्लुतोदकस्थानीय मोक्ष जिसका फल है, ऐसे ज्ञानकी प्राप्ति होनेके वाद, कृपतड़ागादिस्थानीय स्वाभाववत् फलान्तरे तत्साधनभूतायां । कर्म-फलरूप तुच्छ, सुखोंकी इच्छुकताका अभाव हो वा क्रियायाम् अथित्वानुपपत्तिः।। जानेके कारण, फलान्तरकी या उसकी साधनभूत क्रियाकी इच्छुकता नहीं रह सकती। नहि राज्यप्राप्तिकले कमणि व्यापृतस्य क्योंकि जो मनुष्य राज्य प्राप्त करा देनेवाले क्षेत्रप्राप्तिकले व्यापारोपपत्तिः तद्विषयं च कर्ममें लगा हुआ है, उसकी प्रवृत्ति, क्षेत्र-प्राप्ति ही जिसका फल है ऐसे कम नहीं होती और उस अर्थित्वम् । कर्मके फलकी इच्छा भी नहीं होती। तस्माद् न कर्मणः अस्ति निःश्रेयससाध- सुतरां यह सिद्ध हुआ, कि परम कल्याणका साधन न तो कर्म है और न ज्ञान-कर्मका समुच्चय नत्वम् । न च ज्ञानकर्मणोः समुचितयोः । न ही है । तथा कैवल्य (मोक्ष) ही जिसका फल है, अपि ज्ञानस्य कैवल्यफलस्य कर्मसाहाय्यापेक्षा ऐसे ज्ञानको कर्मोंकी सहायता भी अपेक्षित नहीं है क्योंकि ज्ञान अविद्याका नाशक है इसलिये उसक अविधानिवर्तकत्वेन विरोधात् । कोसे विरोध है।