पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४६४

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श्रीमद्भगवद्गीता न हि तम तमसो निवर्तकम् अतः केवलम् यह प्रसिद्ध ही है कि अन्धकारका नाशक अन्धकार नहीं हो सकता । इसलिये केवल ज्ञान ही एव ज्ञानं निःश्रेयससाधनम् इति । परम कल्याणका साधन है। न, नित्याकरणे प्रत्यवायग्रालेः कैवल्यस्य पू०-यह सिद्धान्त ठीक नहीं, क्योंकि नित्य- च नित्यत्वात् । यत् तावत् केवलज्ञानात् कर्मोके न करनेसे प्रत्यवाय होता है और मोक्ष कैवल्यप्राप्तिः इति एतद् असत् । यतो नित्य है । पहले जो यह कहा गया कि केवल ज्ञानसे ही मोक्ष मिलता है, ठीक नहीं, क्योंकि वेद-शास्त्र में नित्यानां कर्मणां श्रुत्युक्तानाम् अकरणे कहे हुए नित्यकर्मोके न करनेसे नरकादिकी प्राप्तिरूप प्रत्यवायो नरकादिप्राप्तिलक्षणः स्यात् । प्रत्यवाय होगा। ननु एवं तर्हि कर्मभ्यो मोक्षो नास्ति इति यदि कहो कि ऐसा होनेसे तो कर्मोसे छुटकारा अनिर्मोक्ष एव! न एष दोषः,नित्यत्वाद् मोक्षस्था ही न होगा, अतः मोक्षके अभावका प्रसंग हो जायगा, तो ऐसा दोष नहीं है, क्योंकि मोक्ष नित्यसिद्ध नित्यानां कर्मणाम् अनुष्ठानात् प्रत्यवायस्थ है । नित्यकर्मोंका आचरण करनेसे तो प्रत्यवाय अप्राप्तिः। प्रतिषिद्धस्य च अकरणाद् अनिष्ट- | न होगा, निषिद्ध कर्मोंका सर्वथा त्याग कर देनेसे शरीरानुपपत्तिः । काम्यानां च वर्जनाद् अनिष्ट ( बुरे ) शरीरोंकी प्राप्ति न होगी, काम्य- इष्टशरीरानुपपत्तिः । वर्तमालशरीरारम्भकस्य । कमोंका त्याग कर देनेके कारण इष्ट (अच्छे) शरीरों- की प्राप्ति न होगी, तथा वर्तमान शरीरको उत्पन्न च कर्मणः फलोपभोगक्षये पतिते अमिन करनेवाले कर्मोका, फलके उपभोगसे क्षय हो जानेपर, शरीरे देहान्तरोत्पत्तौ च कारणामावाद् इस शरीरका नाश हो जानेके पश्चात्, बिना कारण आत्मनो रागादीनां च अकरणात् खरूपाव- अन्य शरीरकी उत्पत्ति न होनेसे, और शरीरसम्बन्धी आसक्ति आदिके न रहनेसे, जो स्वरूपमें स्थित स्थानम् एव कैवल्यम् इति अयत्नसिद्धं कैवल्यम् होनारूप कैवल्य है, वह बिना प्रयत्नके ही सिद्ध इति । हो जायगा। अतिक्रान्तानेकजन्मान्तरकृतस्य वर्गनर- उ.-किन्तु भूतपूर्व अनेक जन्मोंके किये हुए जो स्वर्ग-नरक आदिकी प्राप्तिरूप फल देनेवाले अनेक कादिप्राप्तिफलस्य अनारब्धकार्यस्य उपभोगानु- अनारब्धफल-सञ्चित कर्म हैं, उनके फलका उपभोग पपत्तेः क्षयाभाव इति चेत् । न होने के कारण, उनका तो नाश नहीं होगा। न, नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखोपभोगस्य पू०-यह बात नहीं है, क्योंकि नित्यकर्मके तत्फलोपभोगत्वोपपत्तेः । प्रायश्चित्तवद् वा अनुष्ठानमें होनेवाले परिश्रमरूप दुःखभोगको, उन कर्मों के फलका उपभोग माना जा सकता है। अथवा पूर्वोपात्तदुरितक्षयार्थत्वाद् नित्यकर्मणाम् । प्रायश्चित्तकी भाँति नित्यकर्म भी पूर्वकृत पापका नाश आरब्धानां च उपभोगेन एव कर्मणां क्षीणत्वाद् करनेवाले मान लिये जायेंगे, तथा प्रारब्धकर्मका फल- अपूर्वाणां च कर्मणाम् अनारम्भे अयत्नसिद्धं भोगसे नाश हो जायगा, फिर नये कोका आरम्भ न कैवल्यम् इति । करनेसे 'कैवल्य' बिना यत्नके सिद्ध हो जायगा ।