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शांकरभाष्य अध्याय १८

न, 'तमेव विदित्वातिमृत्युमोते नान्यः पन्था उ:-यह सिद्धान्त ठीक नहीं है. क्योंकि उस विद्यतेऽयनाय' (वेड ३८ ) इति विद्याया (परमात्मा) को जानकर ही मनुष्य मृत्युसे तरता है। मोदन-प्राप्तिके लिये दुसरा मार्ग नहीं है। अन्यः पन्था मोक्षाय न विद्यते इति श्रुने, इन प्रकार मोक्षके लिये विद्याने अतिरिक्त अन्य मार्ग- चर्मवद् आकाशवेष्टनासंभवयद् अविदुषो मोक्षा- का अन्नाब बतलानेवाली श्रुति हैं । तया जोले चमड़ेकी तरह आकाशको लपेटना असम्भव है, उसी प्रकार संभवश्रुतेः । ज्ञानात कैवल्यम् आमोनि इति च अज्ञानीको मुक्ति असम्भव बतलानेवाली भी श्रुति है। पुराणस्मृतेः। एवं राम और स्तुतियों ने भी यही कहा गया है, कि ज्ञान हो यकी प्राप्ति होती है। अनारब्धफलानां पुण्यानां कर्मणां श्यानु- इसके सिवा उन्त सिद्धान्त में जिनका फल पपत्तेः च । यथा पूर्योपात्तानां दुरितानाम् निटना आरम्भ नहीं हुआ है ऐसे पूर्वकृत पुथ्योंके नाही उपयतिन होनेसे भी. यह पक्ष ठीक नहीं है। अनारब्धफलानां संभवः तथा पुण्यानाम् अपि अर्थात जिस प्रकार पूर्वकृत सञ्चित पापोंका होना अनारब्धफलानां स्यात् संभवः । तेषां च सन्नव है, उर्मा प्रकार सद्धित पुष्योंका होना देहान्तरम् अकृत्वा क्षयानुपपत्तो मोक्षा- भी सम्भव है ही; अतः देहान्तरको उत्पन्न किये बिना उनकता क्षय सम्भव न होनेसे इस पक्षके नुपपत्तिः। अनुसार ) मोक्ष सिद्ध नहीं हो सकेगा। धर्माधर्महेतूनां च रागद्वेषमोहानाम् अन्यत्र इसके सिवा, पुण्य-पापके कारणरूप राग, द्वेष आत्मज्ञानाद् उच्छेदानुषपत्तेः धर्माधर्मोच्छे- और मोह आदि दोषोंका, बिना आत्मज्ञानके मूलोच्छेद होना सम्भव न होने के कारण भी, पुण्य-पाएका दानुपपत्तिः। उच्छेद होना सम्भव नहीं । नित्यानां च कर्मणां पुण्यलोकफलश्रुतेः तथा श्रुतिमें नित्यकाका पुण्यलोककी प्राप्ति- रूप फल बतलाया जानके कारण और अपने कर्मों- 'वर्णा आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः' ( आ० ५०२ में स्थित वर्णाश्रमावलम्बी इत्यादि स्मृतिवाक्यों- द्वारा भी यही बात कही जानेके कारण भी २।२।३ ) इत्यादिस्मृतेः च कर्मक्षयानुपपत्तिः।

कोका क्षय (मानना) सिद्ध नहीं होता ।

ये तु आहुः नित्यानि कर्माणि दुःखरूप- तथा जो यह कहते हैं, कि 'नित्यकर्म दुःखरूप होनेके कारण पूर्वकृत पापोंका फल ही है, उनका त्वात् पूर्वकृतदुरितकर्मणां फलम् एव न तु तेषां अपने स्वरूपसे अतिरिक्त और कोई फर्क नहीं है, खरूपव्यतिरेकेण अन्यत् फलम् अस्ति अश्रुत- क्योंकि श्रुतिमें उनका कोई फल नहीं बतलाया गया तथा उनका विधान जीवननिर्वाह आदिके त्वाद् जीवनादिनिमित्ते च विधानाद् इति । लिये किया गया है ।' उनका कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो कर्म फल देनेके लिये प्रवृत्त नहीं न, अप्रवृत्तानां फलदानासंभवात्, दुःखफल- हुए, उनका फल होना असम्भव है और नित्य- कर्मक अनुष्ठानका परिश्रम, अन्य कर्मका फलविशेष विशेषानुपपत्तिः च स्यात् । है यह बात भी सिद्ध नहीं की जा सकेगी।