पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४६६

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श्रीमद्भगवद्गीता यद् उक्तं पूर्वजन्मकृतदुरितानां कर्मणां तुमने जो यह कहा, कि पूर्वजन्मकृत पाप- फलं नित्यकर्मानुष्ठानाथासदुःखं भुज्यते कर्मोका फल, नित्यकोंके अनुष्ठानमें होनेवाले परिश्रमरूप दुःखके द्वारा भोगा जाता है, सो इति तद् असत् । न हि मरणकाले फलदानाय ठीक नहीं । क्योंकि मरनेके समय जो कर्म अनकुरीभूतस्य कर्मणः फलम् अन्यकर्मारब्धे भविष्यमें फल देनेके लिये अङ्कुरित नहीं हुए, जन्मनि उपभुज्यते इति उपपत्तिः। उनका फल दूसरे कर्मोद्वारा उत्पन्न हुए शरीरमें भोगा जाता है, यह कहना युक्तियुक्त नहीं है । अन्यथा स्वर्गफलोपभोगाय अग्निहोत्रादि- यदि ऐसा न हो, तो स्वर्गरूप फलका भोग कारब्धे जन्मनि नरककर्मफलोयभोगानु- करने के लिये अग्निहोत्रादि कर्मोसे उत्पन्न हुए जन्ममें, नरकके कारणभूत कर्मोका फल भोगा जाना पपत्ति न स्यात् । भी, युक्तिविरुद्ध नहीं होगा। तस्य दुरितदुःखविशेषफलत्वानुपपत्तेः च, इसके सिवा वह ( नित्यकर्मके अनुष्ठानमें होने- वाला परिश्रमरूप दुःख ) पापोंका फलरूप दुःख- अनेकेषु हि दुरितेषु संभवत्सु भिन्नदुःखसाधन- विशेष सिद्ध न हो सकनेके कारण भी, तुम्हारा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रकारके दुःख- फलेषु नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखमात्रफलेषु साधनरूप फल देनेवाले, अनेक ( सञ्चित ) पापोंके कल्प्यमानेषु द्वन्द्वरोगादिबाधानिमित्तं न हि होनेकी सम्भावना होते हुए भी, नित्यकर्म-अनुष्टान- के परिश्रममात्रको ही उन सबका फल मान लेनेपर, शक्यते कल्पयितुं नित्यकर्मानुष्ठानाथासदुःखम् । शीतोष्णादि द्वन्द्वोंकी अथवा रोगादिकी पीड़ासे होने- वाले दुःखोंको पापोंका फल नहीं माना जा सकेगा। एव पूर्वकृतदुरितफलं न शिरसा पाषाणवह- तथा यह हो भी कैसे सकता है, कि नित्यकर्मके अनुष्ठानका परिश्रम ही पूर्वकृत पापोंका फल है, नादिदुःखम् इति । सिरपर पत्थर आदि ढोनेका दुःख उसका फल नहीं ? अप्रकृतं च इदम् उच्यते नित्यकर्मानुष्ठाना- इसके सिवा, नित्यकोंके अनुष्ठानसे होनेवाला परिश्रमरूप दुःख, पूर्वकृत पापोंका फल है, यह यासदुःखं पूर्वकृतदुरितकर्मफलम् इति । कहना प्रकरणविरुद्ध भी है। कथम्, अप्रसूतफलस्य पूर्वकृतदुरितस्य क्षयो न उ०--जो पूर्वकृत पाप, फल देनेके लिये अंकुरित उपपद्यते इति प्रकृतं तत्र प्रसूतफलस्य कर्मणः नहीं हुए हैं, उनका क्षय नहीं हो सकता ऐसा प्रकरण है; उसमें तुमने, फल देनेके लिये प्रस्तुत फलं नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखस् आह भवान् हुए पूर्वकृत पापोंका ही फल, से होनेवाला परिश्रमरूप दुःख बतलाया है, जो न अप्रसूतफलस्य इति. कर्म फल देनेके लिये प्रस्तुत नहीं हुए हैं, उनका फल नहीं बतलाया। पू०-कैसे ? नित्यकर्मोंके अनुष्ठान-