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शांकरभाष्य अव्ययाय १८

पाया शांकरभाष्य अध्याय १८ अथ सर्वम् एव पूर्वकृतं दुरितं प्रसूतफलम् एव यदि तुम यह मानते हो, कि पूर्वकृत सभी पाप- इति मन्यते भवान् ततो नित्यकर्मानुशाना- नियमों के अनुष्टानका परिश्रमरूप दुःख ही उनका कर्म. क देने के लिये प्रवृत्त हो चुके हैं, तो फिर यासदुःखम् एव फलम् इति विशेषणम् अयुक्तं फुल है, यह विशेषण देना अयुक्त ठहरता है और नित्यकर्मविधायक शास्त्रको भी व्यर्थ नित्यकर्मविध्यानर्थक्यप्रसङ्गः च उपभोगेन माननेका प्रसंग आ जाता है । क्योंकि फल देनेके लिये अंकुरित हुए पापोंका तो उपभोगसे ही क्षय एव प्रसूतफलस्य दुरितकर्मणः क्षयोपपत्तेः । हो जायगा। उनके लिये नित्यकर्मोकी क्या आवश्यकता है। किं च श्रुतस्य नित्यस्य दुःखं कर्मणः चेत् इसके सिवा ( शान्त बनें ) विहित नित्यकोसे होनेवाला परिश्रमरूप दुःख, यदि कर्मका फल हो फलम्, नित्यकर्मानुष्ठानायासाद् एव तदृश्यते तो वह उन (त्रिहित नित्यकमों ) का ही फल व्यायामादिवत् तद् अन्यस्थ इति कल्पनानु- उनके ही अनुष्टानसे होता हुआ दिखलायी देता होना चाहिये। क्योंकि वह व्यायाम आदिको भाँति, पपत्तिः। है, अतः यह कल्पना करना कि वह किसी अन्य कर्मका फल है युक्तियुक्त नहीं है । जीवनादिनिमिचे च विधानाद् नित्यानां नित्यकोका विधान जीवनादिके लिये किया गया है कर्मणाम्, प्रायश्चित्तवत् पूर्वकृतदुरितफलत्वानु- प्रायश्चित्तके समान ही युक्तियुक्त नहीं है । जिस इसलिये भी, नित्यकर्मोको पूर्वकृत पापोंका फल मानना पपत्तिः। यस्मिन् पापकर्मनिमित्ते यद्विहितं प्राय- पापकर्मके लिये जो प्रायश्चित्त विहित है, वह श्चित्तं न तु तस्य पापस्य तत् फलम् । अथ तस्य उस पापका फल नहीं है । तथापि यदि ऐसा एव पापस्य निमित्तस्य प्रायश्चित्तदुःखं फलं मानें, कि प्रायश्चित्तरूप दुःख (जिसके लिये प्रायश्चित्त किया जाय ) उस पापरूप निमित्तका ही जीवनादिनिमित्तम् अपि नित्यकर्मानुष्ठा- फल होता है, तो जीवनादिके लिये किये जानेवाले नायासदुःखं जीवनादिनिमित्तस्य एव तत् फलं नित्यकर्मीका परिश्रमरूप दुःख भी, जीवन आदि प्रसज्येत नित्यप्रायश्चित्तयोः नैमित्तिकत्वा- हेतुओंका ही फल सिद्ध होगा; क्योंकि नित्य और प्रायश्चित्त ये दोनों ही किसी-न-किसी निमित्तसे विशेषात् । किये जानेवाले हैं. इनमें कोई भेद नहीं है । किं च अन्यद् नित्यस्य काम्थस्य च इसके सिवा नित्यकर्मके परिश्रमकी और काम्य अग्निहोत्रादेः अनुष्ठानायासदुःखस्य तुल्यत्वाद् अग्निहोत्रादि कर्मके परिश्रमकी समानता होने के कारण, नित्यकर्मका परिश्रम ही पूर्वकृत पापका फल है, नित्यानुष्ठानायासदुःखम् एव पूर्वकृतदुरितस्य काम्य-कर्मानुष्टानका परिश्रमरूप दुःख उसका फल फलं न तु काम्यानुष्ठानावासदुःखम् इति नहीं है, ऐसा माननेके लिये कोई विशेष कारण विशेषो न अस्ति इति तद् अपि पूर्वकृत- नहीं है; अतः वह काम्यकर्मका परिश्रमरूप दुःख दुरितफलं प्रसज्येत । भी, पूर्वकृत पापका ही फल माना जायगा ।