पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४८

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श्रीमद्भगवद्गीता .. न, विदुष आत्मत्वात् । न देहादिसंघातस्य उ०--यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा स्वयं ही जाननेवाला है। देह आदि संघातमें (जड होनेके विद्वत्ता । अतः पारिशेष्यात् असंहत आत्मा कारण) ज्ञातापन नहीं हो सकता, इसलिये अन्तमें विद्वान् अविक्रिय इति, तस्य विदुषः कर्मा- देहादि संघातसे भिन्न आत्मा ही अविक्रिय ठहरता है और वही जाननेवाला है। ऐसे उस ज्ञानीसे संभवात् आक्षेपो युक्तः कथं स पुरुषः' इति । कर्म होना असंभव है, अतः 'कथं स पुरुषः' यह आक्षेप उचित ही है। यथा बुद्ध्यायाहृतस्य शब्दाद्यर्थस्य अविक्रिय जैसे (वास्तवमें) निर्विकार होनेपर भी आत्मा,बुद्धि- एव सन् बुद्धिवृत्त्यविवेकविज्ञानेन अविद्यया वृत्ति और आत्माका भेदज्ञान न रहने के कारण अविद्या- के सम्बन्धसे, बुद्धि आदि इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण किये हुए उपलब्धा आत्मा कल्प्यते । शब्दादिविषयोंकाग्रहणकरनेवाला मानलियाजाता है। एवम् एव आत्मानात्मविवेकज्ञानेन बुद्धि- ऐसे ही आत्म-अनात्म-विषयक विवेकज्ञानरूप जो वृत्या विद्यया असत्यरूपया एव परमार्थतः बुद्धिवृत्ति है जिसे विद्या कहते हैं, वह यद्यपि असत्- रूप है, तो भी उसके सम्बन्धसे, बास्तवमें जो अविक्रिय एवं आत्मा विद्वान् उच्यते । अविकारी है, ऐसा आत्मा ही विद्वान् कहा जाता है। विदुषः कर्मासंभववचनात् यानि कर्माणि ज्ञानीके लिये सभी कर्म असम्भव बतलाये हैं, इस शाखेण विधीयन्ते तानि अविदुषो विहितानि कारण भगवान्का यह निश्चय समझा जाता है कि शास्त्रद्वारा जिन कर्मों का विधान किया गया है वे इति भगवतो निश्चयः अवगम्यते । सब अज्ञानियों के लिये ही विहित हैं। ननु विधा अपि अविदुष एक विधीयते, पू०--विद्या भी अज्ञानीके लिये ही विहित है, क्योंकि जिसने विद्याको जान लिया उसके लिये विदितविधस्य पिष्टपेषणवत् विद्याविधानान- पिसेको पीसनेकी भाँति विद्याका विधान व्यर्थ है। र्थक्यात् । तत्र अविदुषः कर्माणि विधीयन्ते अतः अज्ञानीके लिये कर्म कहे गये हैं, ज्ञानीके लिये न विदुष इति विशेषो न उपपद्यते । नहीं, इस प्रकार विभाग करना नहीं बन सकता। न, अनुष्ठेयस्य भावाभावविशेषोपपत्तेः अग्नि- उ0--यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि कर्तव्यके भाव और अभावसे भिन्नता सिद्ध होती है, अभिप्राय होत्रादिविध्यर्थज्ञानोत्तरकालम् अग्निहोत्रादिकर्म यह कि अग्निहोत्रादि कमोंका विधान करनेवाले विधिवाक्योंके अर्थको जान लेनेके बाद 'अनेक अनेकसाधनोपसंहारपूर्वकम् अनुष्ठेयम् 'कर्ता साधन और उपसंहारके सहित अमुक अग्निहोत्रादि अहं मम कर्तव्यम्' इति एवंप्रकारविज्ञानवतः | कर्म अनुष्ठान करनेके योग्य है' 'मैं कर्ता हूँ' 'मेरा | अमुक कर्तव्य है। इस प्रकार जाननेवाले अज्ञानीके अविदुषो यथा अनुष्ठेयं भवति न तु तथा न | लिये जैसे कर्तव्य बना रहता है वैसे 'न जायते' जायते' इत्यादि आत्मस्वरूपविध्यर्थज्ञानोत्तर- इत्यादि आत्मखरूपका विधान करनेवाले वाक्यों के अर्थको जान लेनेके बाद उस ज्ञानीके लिये कुछ कालभावि किंचित् अनुष्ठेयं भवति । कर्तव्य शेष नहीं रहता।