पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४५८ श्रीमद्भगवद्गीता निमित्तं किंचित् साध्यते, मिथ्याप्रत्ययकार्य सिद्ध नहीं किया जा सकता । परन्तु मिथ्या | प्रत्ययका कार्य ( जन्म-मरणरूप ) अनर्थ, (मनुष्य) तु अनर्थम् अनुभवति । अनुभव कर रहा है। गौणप्रत्ययविषयं च जानातिन एष सिंहो इसके सिवा गौण प्रतीतिके विषयको मनुष्य ऐसा जानता भी है कि वास्तवमें यह देवदत्त सिंह देवदत्तः स्याद् न अयम् अग्निः माणवक इति । नहीं है और यह बालक अग्नि नहीं है । तथा गौणेन देहादिसंघातेन आत्मना कृतं ( यदि उपर्युक्त प्रकारसे शरीरादि संघातमें भी आत्मभाव गौण होता तो) शरीरादिके संघातरूप कर्म न मुख्येन अहंप्रत्ययविषयेण आत्मना गौण आत्माद्वारा किये हुए कर्म, अहंभावके मुख्य विषय कृतं स्यात् । न हि गौणसिंहाग्निभ्यां कृतं आत्माके किये हुए नहीं माने जाते। क्योंकि गौण सिंह कर्म मुख्यसिंहाग्निभ्यां कृतं स्यात् । न च ! (देवदत्त) और गौण अग्नि (बालक)द्वारा किये हुए कर्म क्रौर्येण पैङ्गल्येन वा मुख्यसिंहाग्न्योः मुख्य सिंह और अग्निके नहीं माने जाते । तथा उस | क्रूरता और पिङ्गलताद्वारा कोई मुख्य सिंह और मुख्य कार्य किंचित् क्रियते स्तुत्यर्थत्वेन उप- ! अग्निका कार्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे क्षीणत्वात् । केवल स्तुतिके लिये कहे हुए होनेसे हीनशक्ति हैं। स्तूयमानौ च जानीतो न अहं सिंहो न जिनकी स्तुति की जाती है वे ( देवदत्त और | बालक ) भी यह जानते हैं कि 'मैं सिंह नहीं हूँ, अहम् अग्निः इति, न सिंहस्य कर्म मम अग्नेः मैं अग्नि नहीं हूँ' तथा 'सिंहका कर्म मेरा नहीं है, च इति, तथा न संघातस्य कर्म मम मुख्यस्य शरीर आदिमें गौण भावना होती तो ) संघातके कर्म 'अग्निका कर्म मेरा नहीं है। इसी प्रकार ( यदि आत्मन इति प्रत्ययो युक्ततरः स्याद् न पुनः मुझ मुख्य आत्माके नहीं हैं ऐसी ही प्रतीति होनी चाहिये थी, ऐसी नहीं कि 'मैं कर्ता हूँ,' 'मेरे कर्म अहं कर्ता मम कर्म इति | हैं' (सुतरां यह सिद्ध हुआ कि शरीरमें आत्म- | भाव गौण नहीं, मिथ्या है)। यत् च आहुः आत्मीयैः स्मृतीच्छाप्रयत्नैः जो ऐसा कहते हैं कि अपने स्मृति, इच्छा और कर्महेतुभिः आत्मा करोति इति । न, तेषां प्रयत्न इन कर्महेतुओंके द्वारा आत्मा कर्म किया करता है, उनका कथन ठीक नहीं; क्योंकि ये सब मिथ्याप्रत्ययपूर्वकत्वात् । मिथ्याप्रत्यय- मिथ्या प्रतीतिपूर्वक ही होनेवाले हैं। अर्थात् स्मृति, निमित्तेष्टानिष्टानुभूतक्रियाफलजनितसंस्कार- इच्छा और प्रयत्न आदि सब, मिथ्या प्रतीतिसे पूर्वका हि स्मृतीच्छाप्रयत्नादयः । होनेवाले, इष्ट-अनिष्टरूप अनुभूत कर्मफलजनित संस्कारोंको, लेकर ही होते हैं। यथा अस्मिन् जन्मनि देहादिसंघाताभिमान- जिस प्रकार इस वर्तमान जन्ममें धर्म, अधर्म और रागद्वेषादिकृतौ धर्माधर्मों तत्फलानुभवः च उनके फलोंका अनुभव (सुख-दुःख),शरीरादि संघातमें आत्मबुद्धि और राग-द्वेषादिद्वारा किये हुए होते हैं, वैसे तथा अतीते अतीततरे अपि जन्मनि इति ही भूतपूर्व जन्ममें और उससे पहले के जन्मोंमें भी थे ।