पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४७३

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Tem............... शांकरभाष्य अध्याय १८ i अनादि अविद्याकृतः संसारः अतीतः इस न्यायसे यह अनुमान करना चाहिये कि यह बीता हुआ और आगे होने वाला (जन्म-मरणरूप) अनागतः च अनुमेया। संसार अनादि एवं अविद्यानक ही है । ततः च सर्वकर्मसंन्यासाद् ज्ञाननिष्ठायाम् इससे यह निद्ध होता है, कि ज्ञाननिष्टाने सर्व कमोंके संन्यातसे संसारकी आत्यन्तिक निवृत्ति हो आत्यन्तिकः संसारोपरम इति सिद्धम् । जाती है। क्योंकि देहाभिमान अविद्यारूप है अतः अविद्यात्मकत्वात् च देहाभिमानस्य तन्नि- उसकी निवृत्ति हो जानेपर झारगन्तरकी प्राति न होने के कारण । जन्म-मरवरूप संतारकी प्राप्ति वृत्तौ देहानुपपत्तेः संसारानुषपत्तिः । नहीं हो नुकती। देहादिसंघाते आत्माभिमानः अविद्यात्मकः। शरीरादि संघातमें जो आत्माभिमान है वह न हि लोके गवादिभ्यः अन्यः अहं मत्तः अविद्यारूप है क्योंकि संसारमें भी मैं गौ आदिसे अन्य हूँ और गौ आदि वस्तुएँ मुझसे अन्य हैं' व अन्ये गवादय इति जानन तेषु अहम् इति ऐसा जाननेवाला कोई भी मनुष्य उनमें ऐसी बुद्धि प्रत्ययं मन्यते कश्चित् । नहीं करता कि 'यह मैं हूँ। अजानन् तु स्थाणी पुरुषविज्ञानवद् न जाननेवाला ही स्थाणु, गुरुपकी ब्रान्तिके समान अविवेकके कारण, शरीरादि संघातमें "मैं अविवेकतो देहादिसंघाते कुर्याद् अहम् इति हूँ ऐसा आमभाद कर सकता है; पर विवेकपूर्वक प्रत्ययं न विवेकतो जानन् । जानने वाला नहीं कर सकता। यातु 'आत्मा वै पुत्र नामासि (तै ०सं०२१११) तथा पुत्र में जो 'हे पुत्र नू मेरा आत्मा ही है' ऐसी आत्मबुद्धि है, वह जन्य-जनक सम्बन्धके इति पुत्रे अहंप्रत्ययः स तु जन्यजनकसंबन्ध- कारण होनेवाली गौण बुद्धि है, उस गौण आत्मा निमित्तो गौणः । गौणेन च आत्मना भोजना- (पुत्र) से भोजन आदिकी भाँति कोई मुख्य कार्य नहीं दिवत् परमार्थकार्य न शक्यते कर्तुं गौण- किया जा सकता है। जैसे कि गौण सिंह और गौण अग्निरूप देवदत्त और बालकद्वारा, मुख्य सिंह और सिंहाग्निभ्यां मुख्यसिंहाग्निकार्यवत् । मुख्य अग्निका कार्य, नहीं किया जा सकता। अदृष्टविषयचोदनाप्रामाण्याद् आत्मकर्तव्यं पू०-वर्गादि अदृष्ट पदार्थोंके लिये कर्मोका विधान करनेवाली श्रुतिका प्रमाणत्व होनेसे, यह सिद्ध होता है कि शरीर-इन्द्रिय आदि गौण आत्माओं- गौणैः देहेन्द्रियात्मभिः क्रियते इति चेत् । के द्वारा मुख्य आत्माके कार्य किये जाते हैं। न, अविद्याकृतात्मकत्वात् तेषाम् । न गौणा उ०-ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि उनका • आत्मत्व अविद्याकर्तृक है । अर्थात् शरीर-इन्द्रिय आत्मानो देहेन्द्रियादयः । । आदि गौण आत्मा नहीं हैं (किन्तु मिथ्या है)। १ जैसे पुत्रके भोजन करनेसे पिता तृप्त नहीं हो सकता उसी प्रकार गौण आत्मासे मुख्य आत्माका कोई भी कार्य नहीं हो सकता।