पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४७४

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श्रीमद्भगवद्गीता कथं तहि। पूर -तो फिर (इनमें आत्मभाव ) कैसे होता है ? मिथ्याप्रत्ययेन एव असङ्गस्य आत्मनः उ.--मिथ्याप्रतीतिसे ही संगरहित आत्माकी संगति मानकर, इनमें आत्मभाव किया जाता है; क्योंकि उस सङ्गत्यात्मत्वम् आपाद्यते तद्भावे भावात् । मिथ्याप्रतीतिके रहते हुए ही उनमें आत्मभावकी सत्ता है, उसके अभावसे आत्मभावनाका भी अभाव हो तदभावे च अभावात् । जाता है। अविवेकिनांहि अज्ञानकाले बालानां दृश्यते | अभिप्राय यह कि मूर्ख अज्ञानियोंका ही दीर्घः अहं गौरः अहम् इति देहादिसंघाते | अज्ञानकालमें 'मैं बड़ा हूँ, मैं गौर हूँ' इस प्रकार शरीर-इन्द्रिय आदिके संघातमें आत्माभिमान देखा अहंप्रत्यय न तु विवेकिनाम् अन्यः अहं जाता है । परन्तु 'मैं शरीरादि संघातसे अलग हूँ' ऐसा देहादिसंघाताद् इति ज्ञानवतां तत्काले समझनेवाले विवेकशीलोंकी, उस समय शरीरादि देहादिसंघात अहंप्रत्ययो भवति । संधातमें अहं-बुद्धि नहीं होती। तसाद् मिथ्याप्रत्ययाभावे अभावात् तत्कृत सुतरां, मिथ्याप्रतीतिके अभावसे देहात्मबुद्धिका अभाव हो जानेके कारण, यह सिद्ध होता है कि एव न गौणः। ! शरीरादिमें आत्मबुद्धि अविद्याकृत ही है, गौण नहीं। पृथग्गृह्यमाणविशेषसामान्ययोः हि सिंहदेव- जिनकी समानता और विशेषता अलग-अलग दत्तयोः अग्निमाणवकयोः वा गौणः प्रत्ययः समझ ली गयी है, ऐसे सिंह और देवदत्तमें या अग्नि और बालक आदिमें ही गौण प्रतीति या गौण शब्द- शब्दप्रयोगो वा स्याद् न अगृह्यमाणसामान्य- का प्रयोग हो सकता है; जिनकी समानता और विशेषयोः। विशेषता नहीं समझी गयी उनमें नहीं । यत् तु उक्तं श्रुतिप्रामाण्याद् इति । न, तत् तुमने जो कहा कि श्रुतिको प्रमाणरूप माननेसे यह पक्ष सिद्ध होता है वह भी ठीक नहीं; क्योंकि प्रामाण्यस्य अदृष्टविषयत्वात् । प्रत्यक्षादि- उसकी प्रमाणता अदृष्टविषयक है। अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणानुपलब्धे हि विषये अग्निहोत्रादिसाध्य-प्रमाणोंसे उपलब्ध न होनेवाले अग्निहोत्रादिके, साध्य, | साधन और सम्बन्धके विषयमें ही श्रुतिकी प्रमाणता साधनसंबन्धे श्रुतेःप्रामाण्यं न प्रत्यक्षादिविषये है; प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे उपलब्ध हो जानेवाले विषयों- अदृष्टदर्शनार्थत्वात् प्रामाण्यस्य । | में नहीं। क्योंकि श्रुतिकी प्रमाणता अदृष्ट विषयको दिखलाने के लिये ही है ( अर्थात् अप्रत्यक्ष विषयको | बतलाना ही उसका काम है)। तसाद न दृष्टमिथ्याज्ञाननिमित्तस्य अहं- सुतरां देहादि संधातमें, प्रत्यक्ष ही मिथ्या ज्ञानसे प्रत्ययस्य देहादिसंघाते. गौणत्वं कल्पयितुं होनेवाली अहंप्रतीतिको, गौण मानना नहीं बन सकता। शक्यम्।