पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४७५

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शांकरभाष्य अध्याय १८ उ० न हि श्रुतिशतम् अपि शीत: अग्निः क्योंकि अग्नि ठण्डा है या अप्रकाशक हैरेसा अप्रकाशो वा इति ब्रुवत् प्रामाण्यम् उपैति । कहनेवाली सैकड़ों श्रुतिय भी प्रमाणरूप नहीं मानी जा सकती। यदि श्रुति ऐसा कहे कि अग्नि अदि ब्रूयात् शीतः अग्निः अप्रकाशो वा इति उण्डा है अथवा अप्रकाशक हैं तो ऐसा मान लेना तथापि अर्थान्तरं श्रुतेः विवक्षितं. कल्प्यं चाहिये कि श्रुतिको कोई और ही अर्थ अभीष्ट है । क्योंकि अन्य प्रकारले उत्तकी प्रामाणिकता सिद्ध नहीं प्रामाण्यान्यथानुपपत्तेः न तु प्रमाणान्तर- हो सकती । परन्तु प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों के विरुद्धं स्वत्रचनविरुद्धं वा। विरुद्ध या श्रुतिके अपने वचनोंके विरुद्ध श्रुतिके अर्थकी कल्पना करना उचित नहीं। कर्मणो मिथ्याप्रत्ययवत्कर्तृकत्वात् कर्तुः पू०-कर्म. मिथ्या ज्ञानयुक्त पुरुपद्वारा ही किये जानेवाले हैं, ऐसा मानने वान्तबने कर्ताका अभावे श्रुतेः अप्रामाण्यम् इति चेत् । अभाव हो जाने के कारण श्रुतिको अप्रमाणता ( अनर्थकता) ही सिद्ध होती है । न, ब्रह्मविद्यायाम् अर्थवत्त्वोपपत्तेः। -नहीं, क्योंकि ब्रह्मविद्या में उसकी सार्थकता सिद्ध होती है। कर्मविधिश्रुतिबद् ब्रह्मविद्याविधिश्रुतेः -कर्मविनायक श्रुतिकी भांति ब्रह्मविधा- अप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेत् । विधायक श्रुतिकी अप्रमागताका प्रसंग आ जायगा, ऐसा मानें तो? न, बाधकप्रत्ययानुपपत्तेः । यथा ब्रह्मविद्या- उ०-यह ठीक नहीं, क्योंकि उसका कोई बाधक प्रत्यय नहीं हो सकता । अर्थात् जैसे विधिश्रुत्या आत्मनि अवगते देहादिसंघाते ब्रह्मविद्याविधायक श्रुतिद्वारा अहंप्रत्ययो बाध्यते तथा आत्मनि एव जाती है, वैसे आत्मामें ही होनेवाला आत्मभावका हो जानेपर, देहादि संत्रातने आत्मबुद्धि बाधित हो आत्मावगतिः न कदाचित् केनचित् कथंचिद् बोध किसीके द्वारा किसी प्रकार भी बाधित नहीं किया जा सकता । क्योंकि वह आत्मज्ञान अपने अपि बाधितुं शक्या फलाव्यतिरेकावगते (मिथ्या ज्ञाननिवृत्तिरूप ) फलसे कोई अन्य वस्तु यथा अग्निः उष्णः प्रकाशः च इति । नहीं है । ( वह कलरूप ही है ) जैसे अग्नि उष्ण और प्रकाशस्वरूप है। न च कर्मविधिश्रुतेः अप्रामाण्यम्, पूर्वपूर्व- इसके सिवा (बास्तवमें ) कर्मविधायक श्रुति भी अप्रामाणिक नहीं है, क्योंकि वह पूर्व-पूर्व (स्वाभा- प्रवृत्तिनिरोधेन उत्तरोत्तरापूर्वप्रधुचिजननस्य विक) प्रवृत्तियोंको रोक-रोककर उत्तरोत्तर नयी-नयी (शास्त्रीय ) प्रवृत्तिको उत्पन्न करती हुई ( अन्तमें प्रत्यगात्माभिमुख्यप्रवृत्त्युत्पादनार्थत्वात् । अन्तःकरणकी शुद्धिद्वारा साधकको) अन्तरात्माके मिथ्यात्वे अपि. उपायस्य - उपेयसत्यतया सम्मुख करनेवाली प्रवृत्ति उत्पन्न करती है । अतः उपाय मिथ्या होते हुए भी, उपेयकों सत्यतासे, सत्यत्वम् एव स्वाद् यथा अर्थवादानां उसकी सत्यता ही है; जैसे कि विधियायके अन्तमें कहे जानेवाले अर्थवादवाक्योंकी सत्यता मानी विधिशेषाणाम् । जाती है। आत्मसाक्षात्कार