पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४७६

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श्रीमद्भगवद्गीता लोके अपि वालोन्मत्तादीनां पय आदौ व्यवहारमें भी ( देखा जाता है कि ) उन्मत्त पाययितव्ये चूडावर्धनादिवचनम् । और बालक आदिको दूध आदि पिलानेके लिये चोटी बढ़ने आदिकी बात कही जाती है। प्रकारान्तरस्थानां च साक्षाद् एव प्रामाण्य- तथा आत्मज्ञान होनेसे पहले, देहाभिमान- सिद्धिः प्राग आत्मज्ञानाद् देहाभिमाननिमित्त- निमित्तक प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके प्रमाणत्यकी भाँति | प्रकारान्तरमें स्थित ( कर्मविधायक ) श्रुतियोंकी प्रत्यक्षादिप्रामाण्यवत् । साक्षात् प्रमाणता भी सिद्ध होती है। यत् तु मन्यसे स्वयम् अव्याप्रियमाणः तुम जो यह मानते हो, कि आत्मा स्वयं क्रिया अपि आत्मा संनिधिमात्रेण करोति तद् एव न करता हुआ भी सन्निधिमात्रसे कर्म करता है, यही आत्माका मुख्य कर्तापन है । जैसे राजा स्वयं च मुख्यं कर्तृत्वम् आत्मनः । यथा राजा युद्ध न करते हुए भी सन्निधिमात्रसे ही अन्य युध्यमानेषु योधेषु युध्यते इति प्रसिद्धं स्वयम् योद्धाओंके युद्ध करनेसे 'राजा युद्ध करता है' ऐसे अयुध्यमानः अपि संनिधानाद् एव जितः | कहा जाता है तथा 'वह जीत गया, हार गया' पराजितः च इति च तथा सेनापतिः वाचा वाणीसे ही आज्ञा करता है । फिर भी राजा और ऐसे भी कहा जाता है। इसी प्रकार सेनापति भी केवल एवं करोति क्रियाफलसंबन्धः च राज्ञः सेनापतिका उस क्रियाके फलसे सम्बन्ध होता सेनापतेः च दृष्टः, यथा च ऋत्विकर्म देखा जाता है । तथा जैसे ऋत्विक्के कर्म यजमानके माने जाते हैं, वैसे ही देहादि संघातके कर्म आत्म- यजमानस्य, तथा देहादीनां कर्म आत्मकृतं कृत हो सकते हैं, क्योंकि उनका फल आत्माको सात् तत्फलस्य आत्मगामित्वात् । ही मिलता है। यथा च भ्रामकस्य लोहभ्रामयितृत्वाद् तथा जैसे भ्रामक ( भ्रमण करानेवाला चुम्बक) अव्यामृतस्य एव मुख्यम् एव कर्तृत्वं तथा च स्वयं क्रिया नहीं करता, तो भी वह लोहेका चलाने- बाला है, इसलिये उसीका मुख्य कर्तापन है, वैसे ही आत्मन इति । आत्माका मुख्य कर्तापन है ।। तद् असत्, अकुर्वतः कारकत्वप्रसङ्गात् । ऐसा मानना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा माननेसे न करनेवालेको कारक माननेका प्रसंग आ जायगा । कारकम् अनेकप्रकारम् इति चेत् । न, यदि कहो कि कारक तो अनेक प्रकारके होते राजप्रभृतीनां मुख्यस्य अपि कर्तृत्वस्य | हैं, तो भी तुम्हारा कहना ठीक नहीं; क्योंकि राजा आदिका मुख्य कर्तापन भी देखा जाता दर्शनात् । राजा तावत् स्वव्यापारेण अपि है। अर्थात् राजा अपने निजी व्यापारद्वारा भी युध्यते योधानां योधयितृत्वेन धनदानेन च युद्ध करता है, तथा योद्धाओंसे युद्ध कराने और उन्हें धन देनेसे भी निःसन्देह उसका मुख्य मुख्यम् एव कर्तृत्वं तथा जयपराजयफलोप- कर्तापन है, उसी प्रकार जय-पराजय आदि फल- भोगे। भोगमें भी उसको मुख्यता है।