पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४७७

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शांकरभाष्य अध्याय १८ तथा यजमानस्य अपि प्रधानत्यागेन वैसे ही यजमानका भी प्रशन आहुति स्वयं दक्षिणादानेन च मुख्यम् एव कर्तृत्वम् । देनेके कारण और दक्षिणा देने के कारण निःसन्देह मुख्य कर्तृत्व है। तसाद् अव्याप्तस्य कर्तृत्वोपचारो यः पू०-इससे यह निश्चय होता है कि क्रिया- स गौण इति अवगम्यते । यदि मुख्य रहित वस्तुमें जो कर्तापनका उपचार है वह गौर कर्तृत्वं स्वव्यापारलक्षणं है। यदि राजा और यजमान आदिमें स्वव्यापार- न उपलभ्यते रूप मुख्य कर्तापन न पाया जाता तो उनका राजयजमानप्रभृतीनां तदा संनिधिमात्रेण सन्निधिमात्रले भी मुख्य कर्तापन माना जा सकता अपि कर्तृत्वं मुख्य परिकल्प्येत यथा भ्रामकस्य था, जैसे कि लोहेको चलानेमें चुम्बकका सन्निधि- लोहभ्रामणेन न तथा राजयजमानादीनां मात्र से मुख्य कर्तापन माना जाता परन्तु चुम्बक- की भाँति राजा और यजमानका स्वव्यापार उपलब्ध स्वव्यापारो न उपलभ्यते । तस्मात् संनिधि- न होता हो-ऐसी बात नहीं है। सुतरां सन्निधि- मात्रेण अपि कर्तुत्वं गौणम् एव । मात्रसे जो कर्तापन है वह भी गौण ही है। तथा च सति तत्फलसंबन्धः अपि गौण उ०-ऐसा होनेसे तो उसके फलका सम्बन्ध भी एव स्यात् । न गौणेन मुख्य कार्य निवर्त्यते । गौण ही होना चाहिये, क्योंकि गौण कर्ताद्वारा तसाद् असद् एव एतद् गीयते देहादीनां मुख्य कार्य नहीं किया जा सकता । अतः यह व्यापारेण अव्यामृत आत्मा कर्ता भोक्ता च | मिथ्या ही कहा जाता है कि निष्क्रिय आत्मा देहादिकी क्रियासे कर्ता-भोक्ता हो जाता है । भ्रान्तिनिमित्तं तु सर्वम् उपपद्यते । यथा क्योंकि भ्रान्तिके कारण सब कुछ हो सकता खप्ने मायायां च एवम् । न च देहायात्म- । है । जैसे कि स्वप्न और माया होता है ! परन्तु शरीरादिमें आत्मबुद्धिरूप अज्ञान-सन्ततिका विच्छेद प्रत्ययभ्रान्तिसंतानविच्छेदेषु सुषुप्तिसमा- हो जानेपर, सुषुप्ति और समाधि आदि अवस्थाओंमें ध्यादिषु कर्तृत्वभोक्तृत्वादि अनर्थ उपलभ्यते । कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनर्थ उपलब्ध नहीं होता। तस्माद् भ्रान्तिप्रत्ययनिमित्त एव अयं इससे यह सिद्ध हुआ, कि यह संसारभ्रम संसारभ्रमो न तु परमार्थ इति सम्यग्दर्शनाद् : मिथ्या ज्ञान-निमित्तक ही हैं, वास्तविक नहीं, अतः पूर्ण तत्त्वज्ञानसे उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है ॥६६॥ अत्यन्तम् एव उपरम इति सिद्धम् ॥६६॥ स्याद् इति। सर्व गीताशास्त्रार्थम् उपसंहृत्य अस्मिन् | इस अठारहवें अध्यायमें समस्त गीताशास्त्रके अध्याये विशेषतः च अन्ते इह शास्त्रार्थदा- अर्थका उपसंहार करके फिर विशेषरूपसे इस अन्तिम श्लोकमें शास्त्रके अभिप्रायको दृढ़ करनेके लिये यि संक्षेपत उपसंहारं कृत्वा अथ इदानी संक्षेपसे उपसंहार करके, अव शास्त्र-सम्प्रदायकी शास्त्रसंप्रदायविधिम् आह- विधि बतलाते हैं।