पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४७८

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श्रीमद्भगवद्गीता इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ ६७ ॥ इदं शास्त्रं ते तव हिताय मया उक्तं तेरे हितके लिये अर्थात् संसारका उच्छेद करनेके संसारविच्छित्तये अतपस्काय तपोरहिताय न ! लिये, कहा हुआ यह शास्त्र, तपरहित मनुष्यको नहीं सुनाना चाहिये । इस प्रकार 'वाच्यम्' इस वाच्यम् इति व्यवहितेन संबध्यते । व्यवधानयुक्त पदसे 'न' का सम्बन्ध है। तपखिने अपि अभक्ताय गुरुदेवभक्तिरहिताय तपस्वी होनेपर भी जो अभक्त हो अर्थात् गुरु या देवतामें भक्ति रखनेवाला न हो उसे कभी- कदाचन कस्यांचिद् अपि अवस्थायां न वाच्यम् । किसी अवस्थामें भी नहीं सुनाना चाहिये । भक्तः तपस्वी अपि सन् अशुश्रूषुः यो भक्त और तपस्वी होकर भी जो शुश्रूषु (सुनने- भवति तस्मै अपि न वाच्यम् । का इच्छुक) न हो उसे भी नहीं सुनाना चाहिये । न च यो मां वासुदेवं प्राकृतं मनुष्यं मत्वा तथा जो मुझ वासुदेवको प्राकृत मनुष्य अभ्यसूयत्ति आत्मप्रशंसादिदोषाध्यारोपणेन मानकर, मुझमें दोष-दृष्टि करता हो, मुझे ईश्वर न जाननेसे, मुझमें आत्मप्रशंसादि दोषोंका अध्यारोप मम ईश्वरत्वम् अजानन् न सहते असौ अपि | करके, मेरे ईश्वरत्वको सहन न कर सकता हो वह अयोग्य तस्मै अपि न वाच्यम् । भी अयोग्य है; उसे भी (यह शास्त्र) नहीं सुनाना चाहिये। भगवति भक्ताय तपखिने शुश्रूपचे अर्थापत्तिसे यह निश्चय होता है, कि यह अनसूयवे च वाच्यं शास्त्रम् इति सामर्थ्याद् शास्त्र भगवान्में भक्ति रखनेवाले, तपस्वी, शुश्रूषा- युक्त और दोष-दृष्टि-रहित पुरुषको ही सुनाना गम्यते । चाहिये। तत्र मेधाविने तपस्विने वा इति अनयोः अन्य स्मृतियोंमें मेधावीको या तपस्सीको, इस विकल्पदर्शनात् शुश्रूषाभक्तियुक्ताय तपखिने प्रकार इन दोनोंका विकल्प देखा जाता है, इसलिये तयुक्ताय मेधाविने वा वाच्यम् । शुश्रूषाभक्ति- | यह समझना चाहिये कि शुश्रूषा और भक्तियुक्त | तपस्खीको अथवा इन तीनों गुणोंसे युक्त मेधावीको वियुक्ताय न तपखिने न अपि मेधाविने यह शास्त्र सुनाना चाहिये । शुश्रूषा और भक्तिसे रहित वाच्यम् । तपस्वी या मेधावी किसीको भी नहीं सुनाना चाहिये । भगवति असूयायुक्ताय समस्तगुणवत्ते भगवान्में दोष-दृष्टि रखनेवाला तो यदि सर्वगुण- सम्पन्न हो, तो भी उसे नहीं सुनाना चाहिये । गुरु- अपि न. वाच्यम् । गुरुशुश्रूषाभक्तिमते च शुश्रूषा और भक्तियुक्त पुरुषको ही सुनाना चाहिये। वाच्यम् इति एष शास्त्रसंप्रदायविधिः ॥६॥ इस प्रकार यह शास्त्र-सम्प्रदायकी विधि है ॥६॥