पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शांकरभाष्य अध्याय २ किन्तु 'न अहं कर्ता न भोक्ता इत्यादि क्योंकि (ज्ञानीको) 'मैं न कर्ता हूँ' 'न भोक्ता आत्मैकत्वाकर्तृत्वादिविषयज्ञानात् अन्यत् न हूँ' इत्यादि जो आत्माके एकत्व और अकर्तृत्व आदि विषयक ज्ञान है इससे अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार- उत्पद्यते इति एष विशेष उपपद्यते । का भी ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार यह ( ज्ञानी और अज्ञानीके कर्तव्यका ) विभाग सिद्ध होता है । * यः पुनः 'कर्ता अहम्' इति वेत्ति आत्मानं जो अपनेको ऐसा समझता है कि 'मैं कर्ता हूँ तस्य 'मम इदं कर्तव्यम्' इति अवश्यम्भाविनी उसकी यह बुद्धि अवश्य ही होगी कि 'मेरा अमुक कर्तव्य है। उस बुद्धिकी अपेक्षासे वह कर्मोंका बुद्धिः स्यात्, तदपेक्षया सः अधिक्रियते इति अधिकारी होता है, इसीसे उसके लिये कर्म हैं। तंप्रति कर्माणि । स च अविद्वान्–'उभौ तौ और 'उभौ तौ न विजानीतः' इस बचनके अनुसार न विजानीतः' इति वचनात् । वही अज्ञानी है। विशेषितस्य च विदुषः कर्माक्षेपवचनात् क्योंकि पूर्वोक्त विशेषणोंद्वारा वर्णित ज्ञानीके 'कथं स पुरुषः' इति । लिये तो 'कथं स पुरुषः' इस प्रकार कर्मोंका निषेध करनेवाले वचन हैं। तसात् विशेषितस्य अविक्रियात्मदर्शिनो सुतरां (यह सिद्ध हुआ कि ) आत्माको निर्विकार विदुषो मुमुक्षोः च सर्वकर्मसंन्यासे एव | जाननेवाले विशिष्ट विद्वान्का और मुमुक्षुका भी अधिकारः। सर्वकर्मसंन्यासमें ही अधिकार है । अत एव भगवान् नारायणः सांख्यान् इसीलिये भगवान् 'ज्ञानयोगेन विदुषः अविदुषः च कर्मिणः प्रविभज्य द्वे निष्ठे सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्' इस कथनसे ग्राहयति-'ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन | सांख्ययोगी-ज्ञानियों और कर्मी-अज्ञानियोंका विभाग योगिनाम्' इति । करके अलग-अलग दो निष्ठां ग्रहण करवाते हैं। तथा च पुत्राय आह भगवान् व्यास:- ऐसे ही अपने पुत्रसे भगवान् वेदव्यास जी कहते 'दाविमावथ पन्थानौ' (महा० शा० २४११६) हैं कि ये दो भार्ग हैं' इत्यादि, तथा यह भी इत्यादि । तथा च क्रियापथश्चैव पुरस्तात्पश्चात् | कहते हैं कि 'पहले क्रियामार्ग और पीछे संन्यासश्च इति। संन्यास एतम् एव विभागं पुनः पुनः दर्शयिष्यति इसी विभागको बारंबार भगवान् दिखलायेंगे । जैसे भगवान् । 'अतत्त्ववित्तु अहंकारविमूढात्मा कर्ता | 'अहंकारसे मोहित हुआ अज्ञानी मैं कर्ता हूँ ऐसे मानता है। 'तत्त्ववेत्तामैं नहीं करताऐसे मानता अहम् इति मन्यते' 'तत्त्ववित्तु न अहं करोमि' इति । है' तथा 'सव कर्मोको मनसे त्यागकर रहता है' तथा च सर्वकर्माणि मनसा सन्यस्यास्ते' इत्यादि । इत्यादि ।

  • अर्थात् अज्ञानीके लिये कर्तव्य शेष रहता है, ज्ञानीके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । इसलिये

ज्ञानीका कर्मों में अधिकार नहीं है और अज्ञानीका अधिकार है-यह भेद करना उचित ही है । नारायण - । - .!