पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/५०

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श्रीमद्भगवद्गीता क्यात् । तत्र केचित् पण्डितंमन्या वदन्ति जन्मा- इस विषयमें कितने ही अपनेको पण्डित समझने- दिषड्भावविक्रियारहितः अविक्रियः अकर्ता वाले कहते हैं कि जन्मादि छः भावविकारोंसे रहित | निर्विकार, अकर्ता, एक आत्मा मैं हूँ-ऐसा ज्ञान एक: अहम् आत्मा इति न कस्यचित् ज्ञानम् उत्प- किसीको होता ही नहीं कि जिसके होनेसे सर्व द्यते यस्मिन् सति सर्वकर्मसंन्यास उपदिश्यते । कोंके संन्यासका उपदेश किया जा सके। न, 'न जायते' इत्यादि शास्त्रोपदेशानर्थ- यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि ( ऐसा मान लेनेसे) 'न जायते' इत्यादि शास्त्रका उपदेश व्यर्थ होगा। यथा च शास्त्रोपदेशसामर्थ्यात् धर्मास्तित्व- उनसे यह पूछना चाहिये कि जैसे शास्त्रोपदेश- विज्ञानं कर्तुः च देहान्तरसंबन्धिज्ञानं च की सामर्थ्यसे कर्म करनेवाले मनुष्यको धर्मके अस्तित्वका ज्ञान और देहान्तरकी प्राप्तिका ज्ञान उत्पद्यते, तथा शास्त्रात् तस्य एवं आत्मनः होता है, उसी तरह उसी पुरुषको शास्त्रसे आत्माकी अविक्रियत्वाकर्तृत्वैकत्वादिविज्ञानं कस्मात् न । निर्विकारता, अकर्तृत्व और एकत्व आदिका विज्ञान उत्पद्यते इति प्रष्टव्याः ते। क्यों नहीं हो सकता? करणागोचरत्वात् इति चेत् । यदि वे कहें कि ( मन-बुद्धि आदि ) करणोंसे आत्मा अगोचर है इस कारण ( उसका ज्ञान नहीं हो सकता)। न, मनसैवानुद्रष्टव्यम्' (बृ०४।४।१९) इति तो यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि 'मनके द्वारा श्रुतेः । शास्त्राचार्योपदेशशमदमादिसंस्कृतं | उस आत्माको देखना चाहिये' यह श्रुति है, अतः शास्त्र और आचार्यके उपदेशद्वारा एवं शम, दम मन आत्मदर्शने करणम् । आदि साधनोंद्वारा शुद्ध किया हुआ मन आत्म- दर्शनमें 'करण' ( साधन ) है। तथा च तदधिगमाय अनुमाने आगमे च इस प्रकार उस ज्ञान-प्राप्तिके विषयमें अनुमान सति ज्ञानं न उपपद्यते इति साहसम् एतत् । और आगमप्रमाणोंके रहते हुए भी यह कहना कि ज्ञान नहीं होता, साहसमात्र है ! ज्ञानं च उत्पद्यमानं तद्विपरीतम् अज्ञानम् यह तो मान ही लेना चाहिये कि उत्पन्न हुआ ज्ञान अवश्यं बाधते इति अभ्युपगन्तव्यम् । अपनेसे विपरीत अज्ञानको अवश्य नष्ट कर देता है। तत् व अज्ञानं दर्शितं हन्ता अहं हतः असि वह अज्ञान 'मैं मारनेवाला हूँ' 'मैं मारा जाता हूँ इति । 'उभौ तौ न विजानीतः' इति अत्र च "ऐसे माननेवाले दोनों नहीं जानते' इन वचनों- द्वारा पहले दिखलाया ही था, फिर यहाँ भी यह आत्मनो हननक्रियायाः . कर्तृत्वं कर्मत्वं बात दिखायी गयी है कि आत्मामें हननक्रियाका हेतुकर्तृत्वं च अज्ञानकृतं दर्शितम् । | कर्तृत्व, कर्मत्व और हेतुकर्तृत्व अज्ञानजनित है । तत् च सर्वक्रियासु अपि समानं कर्तृत्वादः आत्मा निर्विकार होनेके कारण 'कर्तृत्व' आदि भावोंका अविद्यामूलक होना सभी क्रियाओंमें समान अविद्याकृतत्वम् अविक्रियत्वात् आत्मनः । है। क्योंकि विकारवान् ही (स्वयं ) कर्ता ( बन- विक्रियावान् हि कर्ता आत्मनः कर्मभूतम् अन्यं कर ) अपने कर्मरूप दूसरेको कर्ममें नियुक्त करता प्रयोजयति कुरु इति । है कि 'तू अमुक कर्म कर।